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गुरू बिन ज्ञान – कुछ ठोस कदम उठाने की सख्त आवश्यकता

‘गुरू बिन ज्ञान कहाँ से पाऊँ’… बैजू बावरा के इस गीत को गुनगुनाते हुए लगा कि आज के दौर में यह कितना सटीक है, है न? विद्या तभी फलीभूत होती है जब वह गुरू के सानिध्य में सीखी जाती है। यू-ट्यूब पर देखकर सीखा जा सकता है, बिल्कुल सीखा जा सकता है, लेकिन वह कितना फ़ौरी होता है, हम सभी जानते हैं। कला साधना जैसे बड़े शब्दों में न भी उलझना चाहें, तो लॉकडाउन के चलते जो बच्चे इन दिनों ऑन लाइन कक्षाओं से पढ़ रहे हैं, उनसे ही पूछ लीजिए, उन्हें कितना समझ आ रहा है, उनके अभिभावकों से पूछ लीजिए क्या वे इस तरीके से मिलने वाली शिक्षा से संतुष्ट हैं? समवेत स्वर में सब ना में जवाब देंगे। जब स्कूली पढ़ाई जैसी बनिस्बत आसान बात ऑनलाइन साध्य नहीं हो सकती तो कलाओं जैसी जटिल, महीन चीज़ों को ऑनलाइन कैसे सीखा जा सकता है?

तमाम विधाओं के गुरुओं ने आपको बता भी दिया कि ऐसे करना है, लेकिन आप उसे सही तरीके से कर पा रहे हैं या नहीं, यह देखने के लिए तो गुरू की आँखें ही लगेंगी। इतिहास में एकलव्य कोई एकाध ही होता है, सबके लिए इस तरह केवल देखकर सीखना संभव नहीं है। यदि आप गायन सीख रहे हैं तो गुरू आपका पहला ‘सा’ ठीक करते हैं और जब तक उनके कानों को ठीक नहीं सुनाई देता, वे आगे नहीं बढ़ते। आप उन्हें ऑडियो भेज सकते हैं लेकिन ऑडियो से आने वाली आवाज़ वैसी नहीं होती, जैसी आपकी वास्तविक आवाज़ है। गुरू के कान आपकी वास्तविक आवाज़ की छोटी-सी ग़लती भी बखूबी पकड़ लेते हैं। यदि आप कोई वाद्य सीख रहे हैं तो उसे केवल खरीद लेने से वो आप उसे बजा भी पाएँगे तो ऐसा नहीं है, उसके लिए आपके हाथों और अंगुलियों को माँजना पड़ेगा। तबला बजाते हुए कंधे नहीं उचकाना या ‘पखावज के मुँह’ पर लगाने के लिए आटा कितना गीला रखना और कैसे तुरंत उसी समय गूँथना जैसी बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, जिन्हें गुरू के सामने रहकर ही जाना जा सकता है। कथक करते समय हाथों को कैसे कोहनी से ऊपर रखना या पैर कैसे सीध में होने चाहिए यह वीडियो देखकर नहीं जाना जा सकता।

वीडियो तब मददगार हो सकते हैं जब आप उस कला के बेसिक्स जान चुके होते हैं। लेकिन तब भी वे बेसिक्स तक ही आपका साथ दे सकते हैं। गुरू के सानिध्य में रहकर गुरू से मिलने वाला स्नेह, फटकार और गुरू की ऊर्जा आपको कला का संयम और अनुशासन सिखाती है वह दूर रहकर नहीं हो सकता। तब तो और भी नहीं जब हम इन कलाओं को प्रदर्शनकारी कलाएँ कह रहे हैं। जिन कलाओं को आपको दूसरों के सामने दिखाना है, आगे चलकर जिनकी प्रस्तुति देनी है, उसमें कोई भी दोष स्वीकारा नहीं जा सकता। यदि आप औसत दर्जे के कलाकार बनकर खुश रहना चाहते हैं, तो बात अलग है। यदि आप दूसरों को केवल दिखाने (शो-ऑफ़ करने) के लिए सीखना चाहते हैं तो अलग बात है। लेकिन यदि आप उसमें गहरे डूबना चाहते हैं तो समंदर के पास ही जाना होगा। दूर से आप समंदर को देख सकते हैं लेकिन उसे महसूस नहीं कर सकते। उसके बहाव, दबाव और लहरों के उतार-चढ़ाव को नहीं जान सकते। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे मछुआरा बनने के लिए आपको वास्तव में जाकर मछलियाँ पकड़नी होंगी। घर बैठकर, वीडियो देखकर और आपके घर की ज़मीन को समुद्र समझकर नकली डंडी से मछली पकड़ने का अभिनय कर आप मछुआरा नहीं बन पाएँगे।

अब सवाल यह उठता है कि यदि इसी तरह की परिस्थितियाँ और लंबे समय तक चलीं तो क्या होगा? यदि इस तरह की आपदाएँ/ विपदाएँ बार-बार आएँगी तो क्या किया जा सकता है? भारत सरकार ने शिक्षा नीति में कई बदलाव किए हैं, उसमें एक बदलाव ऐसा भी किया जा सकता है कि कला समूहों के लिए गुरुकुल स्थापित करने पर बड़े पैमाने पर अनुदान दिया जाए। गुरू के सानिध्य में सीमित छात्र गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन/ कला ग्रहण करें। जिस तरह बच्चे घरों पर हैं, वैसे ही वे सुरक्षित रूप से वहाँ रह सकें। प्राचीन कालीन व्यवस्था की तरह गुरू ही पिता हो और गुरू माँ हो जो उनका लालन-पालन भी करें और उन्हें कला के संस्कार भी दें। देखिएगा 24 घंटे गुरू के साथ रहने पर भावी पीढ़ी के कलाकार कैसे मँजे हुए निकलेंगे। तब उनके लिए कला सीखना पार्ट टाइम जॉब नहीं होगा। उन गुरुकुलों में वे ही लोग जाएँगे जो कला को कला के लिए सीखना चाहते हैं। इस समय की दूसरी ज़रूरत है कि कला को हॉबी क्लासेस के टैग से निकालना। कलाकार बनना किसी की हॉबी नहीं हो सकता, यह 24×7 कलाकार बने रहने जैसा है। किसी भी बड़े कलाकार का नाम ले लीजिए, उसने हॉबी क्लास की तरह अपनी कला को नहीं सीखा। जब किसी ने अपना पूरा जीवन कला को दे दिया तभी वह कलाकार कहलाया है। आपको चित्रकारी का शौक है, कभी-कभार चित्र बना रहे हैं तो उस शौक को अवश्य सँभालिए पर खुद को चित्रकार मत कहलवाइए। आपको नृत्य करना अच्छा लगता है, बेशक कीजिए, लेकिन जब उसे साधना में बदल पाएँ तो कहिए कि आप नर्तक हैं। जब 24 घंटे आप गायिकी कर पाएँ तो आप अपने आपको गायक कहलाइए कि कुछ भी हो जाए लेकिन आप रियाज़ करते ही हैं तब तो बात है। कोई वादक कहीं भी जाता है तो अपना वाद्य लेकर जाता है, कपड़े-लत्तों की सूटकेस खो जाएँ, उसे ग़म नहीं होता, वह देखता है वाद्य सुरक्षित है या नहीं।

यदि इस तरह का जज़्बा आपमें है तो कहिए कि आप वादक हैं, नहीं तो शौकिया करना चाह रहे हैं तो कलाकार मत कहलवाइए। कला के प्रश्रयदाता बनिए क्योंकि कला को राज्याश्रय के साथ अन्य प्रश्रयदाताओं की भी ज़रूरत रहती है। कलाकारों को रोज़ी-रोटी की चिंता से मुक्त कर देंगे तो भी आप कला की सेवा कर पाएँगे। अब कुछ ठोस कदम उठाने की सख्त आवश्यकता आन पड़ी है।

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