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‘स्वर्ण-सरोजा शृंखला’ में भरतनाट्यम् एवं कथक

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पद्म भूषण एवं संगीत नाटक अकादमी अवार्ड जैसे सम्मानों से नवाज़ी जा चुकी गुरु सरोजा वैद्यनाथन की स्मृति में, तथा उनके द्वारा स्थापित गणेश नाट्यालय की स्वर्ण-जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित स्वर्ण-सरोजा शृंखला में गत दिनों स्वर्गीया गुरु सरोजा वैद्यनाथन की वरिष्ठ शिष्या कलाश्री अनुराधा वेंकटरमण के भरतनाट्यम् एवं विदुषी उमा डोगरा के कथक नृत्य की अनूठी प्रस्तुतियों ने गणेश नाट्यालय के खचाखच भरे स्टूडियो-सभागार में उपस्थित नृत्य-रसिकों को मुग्ध कर लिया। आज से पचास साल पहले गुरु सरोजा वैद्यनाथन द्वारा स्थापित गणेनाट्यालय ने राजधानी में पहली पहली बार दक्षिण की इस भारतीय शास्त्रीय नृत्यविधा को सीख पाने की सुविधा जुटाई थी।तबसे यहाँ दीक्षित हो कर सैकड़ों कलाकार निकल चुके हैं और देश-विदेश में अपनी गुरु की कीर्ति-पताका फहरा रहे हैं।अनुराधा उनकी शुरुआती शिष्याओं में से एक हैं।

Dr. Saroja Vaidyanathan | PC : wikicommons

नृत्य की इस सायंकालीन सभा का शुभारंभ ‘अहम’ की संस्थापक सुश्री अनुराधा वेंकटरामन द्वारा भरतनाट्यम् शैली में प्रस्तुत ‘वर्णम’ से हुआ। ‘वर्णम’ एकल भरतनाट्यम् प्रदर्शन की प्रमुख प्रस्तुति मानी जाती है, जिसमें नर्तकी के तकनीकी कौशल और अभिनय सामर्थ्य दोनों का ही आकलन होता है। इस शाम अपने भरतनाट्यम प्रदर्शन के लिए ‘वर्णम’ पेश करने का विचार और वह भी त्रावणकोर के महाराजा स्वाति तिरुनाल रचित तोड़ी वर्णम का चुनाव, दोनों के ही लिए अनुराधा की सराहना की जानी चाहिए।

अपनी प्रस्तुति से पहले अनुराधा ने भरे मन से अपनी दिवंगत गुरु सरोजा जी को याद किया “मैं इस नृत्य संस्थान में विद्यार्थी भी रही हूँ और अध्यापिका भी, आज ३५ वर्षों बाद लौटी हूँ तो न जाने कितनी ही स्मृतियाँ मन में उमड़-घुमड़ रही हैं। मैं आभारी हूँ रमा वैद्यनाथन जी की जिन्होंने मुझ आज यहाँ आमंत्रित किया है।”

पद्मनाभ मुद्रा (उपनाम) से अनेकों रचनाओं के रचयिता महाराजा स्वाति तिरुनाल का यह पद भी  उनके इष्टदेव विष्णु को ही समर्पित था। यहाँ नायिका अपनी गजगामिनी सखी से अपने मन की उस व्यग्रता का हाल बताती है जो अपने मनमीत कृष्ण के प्रति उत्कट आसक्ति और मिलन की आतुरता के प्रति उनकी उदासीनता से उपजी है। जटिल जतियों और अभिनयात्मक साहित्य के व्यतिक्रम वाले इस पद का नृत्य-वितान मनोहारी था। बारी बारी से नृत्त के तकनीकी कौशल और साहित्य के भावार्थ को सविस्तार प्रस्तुत करते हुए अनुराधा ने नृत्त की लयात्मक जटिलता और अभिनय दोनों पर ही समान अधिकार का परिचय दिया।नृत्य की कठिन जतियों के रचयिता लालगुड़ी रमेश स्वयं मृदंगम पर उनका साथ दे रहे थे अतः हर तीर्माणम पर तालियों की बौछार हो रही थी।

प्रायः हिंदुस्तानी संगीत में एक ही स्वर के दो स्वरूप का एकसाथ प्रयोग नहीं होता, अतः कर्नाटक संगीत पद्धति के तोड़ी में हिंदुस्तानी संगीत रसिकों को एक साथ कोमल और शुद्ध ऋषभ का प्रयोग भले ही अटपटा लगा हो लेकिन कर्नाटक संगीत में उनमें से एक ऋषभ को अंतर गांधार की संज्ञा दी गई है अतः इसे दुहराव नहीं माना जाता। सुश्री अनुराधा वेंकटरमणदल के  भरतनाट्यम् शैली में प्रस्तुत इस वर्णम के पश्चात कथक शैली की बारी आई।

जयपुर घराने के सुविख्यात नर्तक एवं गुरु पंडित दुर्गालाल की वरिष्ठ शिष्या श्रीमती उमा डोगरा इस अवसर पर अपने कथक प्रदर्शन के लिए मुंबई से पधारी थीं।’सामवेद सोसाइटी फॉर परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स’ संस्था की संस्थापक उमा जी अपने दिवंगत गुरु की याद में प्रतिवर्ष ‘पंडित दुर्गा लाल फेस्टिवल’ आयोजित करती हैं जिसमें अपने अपने क्षेत्र के मूर्धन्य गायक, वादक, नर्तक एवं थियेटर कलाकार आमंतित किए जाते हैं। युवा नर्तकों का ‘रेनड्रॉप फेस्टिवल’ उनका दूसरा वार्षिकोत्सव है जिसमें हर साल अलग अलग नृत्य-शैलियों के संभावनशील कलाकार अपनी प्रतिभा-प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि उमा डोगरा जी आजकर संगीत नाटक अकादमी की घटक इकाई राजधानी दिल्ली स्थित कथक केंद्र की सलाहकार समिति की अध्यक्षा भी हैं।

अपनी प्रस्तुति ‘रसानुभूति’ से पहले उन्होंने सरोजा जी को प्रणति दी और उनके आमंत्रण पर “मीरा के प्रभु’ शीर्षक २००५ के उनके प्रोडक्शन में, भरतनाट्यम् (श्रीमती सरोजा वैद्यनाथन), ओड़िसी (श्रीमती रंजना गौहर) और कथक (स्वयम् उमा डोगरा) की त्रिधारा में उनके साथ काम करते हुए अपने मीठे अनुभवों को साझा किया।

लय-सम्राट पंडित दुर्गालाल जी की वरिष्ठतम शिष्या उमा जी का ताल-लय पर तो असाधारण अधिकार है ही जो उनकी शिव-वंदना में दिखा जिससे उन्होंने इस शाम अपनी मनमोहक प्रस्तुति की शुरुआत की। काशी विश्वनाथ को समर्पित राग बागेश्री एवं चौताल में निबद्ध ध्रुपद “विश्वेश्वराय”, भगवान शिव के अनेक विशेषणों की नृत्यमयी तर्जुमानी थी, जिनके बीच नृत्त पक्ष के थाट, आमद, तोड़े, टुकड़े, परण इत्यादि  माणिकों की तरह जड़े हुए से लगे। तत्कार का अंतिम चरण भी (सुविधा के लिए तीनताल का सहारा लिए बिना) चौताल की बारह मात्राओं पर ही क़ायम रहा, जहां लय के विविध व्यत्ययों में अनूठी उपज दिखायी दी!

‘रसानुभूति’ के अगले चरण में उन्होंने सूरदास के जाने पहचाने पद “बसो मोरे नैनन में नंदलाल” को ‘वात्सल्य रस’ की नयी छटा से सराबोर कर दिया। बागेश्री की मिठास यहाँ भी बरक़रार थी जो साहित्य के निर्वाह में भाव-रसानुरूप सुरों

का आश्रय लेती और बीच के सांगीतिक अंतराल में ‘लहरा’ बन जाती जहां माँ यशोदा अपने शिशु को कभी कलेजे से लगातीं तो कभी अपने दोनों पैरों की ममतामयी शैय्या पर लिटा कर उसकी मालिश करतीं, दोनों हाथों पैरों की कसरत करातीं, नहला-धुला कर वस्त्र पहना कर कुदृष्टि (नज़र) से बचाने के लिए काजल का टीका लगाती! दूध पिलातीं और पालना झुला कर सुलातीं।कभी हाथ पकड़ कर नन्हें डग भरते शिशु  को चलना सिखातीं, कभी पीठ पर घोड़ैया चढ़ातीं, तो कभी उसके साथ आँख-मिचौली खेलतीं, और कभी उसकी मनमोहक अदाओं पर निछावर हो, उसकी बलैया ले लेतीं!

विविध रसों के आस्वादन कराने वाली ‘रसानुभूति’ का अगला चरण शृंगार-रस पर केंद्रित था।

uma dogra, rasanubhuti

उमा ने यहाँ एक अनूठा प्रयोग किया। मिश्र खमाज का ठेठ बनारसी दादरा “डगर बीच कैसे चलूँ मग रोके कन्हैया बेपीर” पर शृंगार की अभिव्यक्ति तो सहज संभाव्य थी, लेकिन दादरे के बीच धर्मवीर भारती की कनुप्रिया के अंश उन्होंने जिस ख़ूबसूरती से जड़े वह अकल्पनीय था।दादरे का अंतरा “मैं जल जमुना भरत जात रही” के बाद नायिका जल में अपनी परछाईं निहार रही है और दादरे की लचकती लय एकाएक थम जाती है और ‘कनुप्रिया’ की काव्य-पंक्तियाँ गूंज उठती हैं-

“यह जो दोपहर के सन्नाटे में,

 यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र किनारे रख, मैं घंटों जल में निहारती हूँ 

तुम क्या समझते हो कि मैं इस भाँति अपने को देखती हूँ?

नहीं मेरे साँवरे,

यमुना के नीले जल में

यह मेरा वेतस-लता सा काँपता तन-बिंब,

और उसके चारों और साँवली गहराई का अथाह प्रसार

जानते हो कैसा लगता है?

मानों यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है 

यह तुम हो, जो सारे आवरण दूर कर 

मुझे चारों और से, कण-कण, रोम-रोम 

अपने श्यामल प्रगाढ़ आलिंगन में 

पोर पोर कसे हुए हो!”   

और इसके तुरंत बाद उमा का साथ दे रहे वाद्य-वृन्द के मधुर गायक मनोज देसाई दादरे का अंतरा फिर से थाम लेते हैं –

“मैं जल जमुना भरत जात रही / मारे नज़रिया के तीर” और उमा तत्काल रूपांतरित हो उठती है तत्सम से तद्भव में, अर्थात् धर्मवीर भारती की साहित्यिक शब्दावली वाली विरहिणी राधिका को अभिनीत करती उत्तम नायिका से दादरा ताल में तबले की टनटनाती ‘लग्गी’ पर थिरकती कथक नर्तकी में जिसके प्रखर पद-विन्यास का जवाब नहीं था!

‘कनुप्रिया’ में वियोग-शृंगार की मीठी टीस से दर्शकों को अंदर तक मथ डालने के बाद संयोग शृंगार के लिए उमा ने जयदेव के गीत-गोविंद की अष्टपदी “सखी हे केसीमथनमुदारम” को चुना। उमा ने बताया कि पहली बार जयदेव की अष्टपदी पर अभिनय के लिए आंतरिक प्रेरणा उन्हें गुरु केलु चरण महापात्र से मिली थी, जिनको वह अपना ‘मानस गुरु’ मानती आईं हैं।सचमुच साहित्य में छुपी लक्षणा और व्यंजना से लेकर, संगीत और नृत्य की उन्हें अनूठी समझ थी।

संयोग शृंगार के चरम को अभिव्यक्त करने वाली यह अष्टपदी राधा की उस कामोद्दीप्त मनःस्थिति को निरूपित करती है जहां वह अपनी सखी से अपने तन-मन का हाल साझा करते हुए उससे आग्रह करती हैं कि केसी राक्षस का मर्दन कर देने वाले कृष्ण को बुला कर लाओ जो मेरी उद्दाम कामातुरता का उसी तरह शमन करें! उनसे  मिल पाने की यह झुलसा देने वाली व्यग्र उत्कंठा अ , मुझसे  सही नहीं जाती।

शाम के बेहद मीठे राग श्याम-कल्याण में बंधी इस रचना में “रमय मया सह” की विशेष स्वर-संगतियाँ एक और प्रणय-केलि की उत्कंठा उद्दीप्त कर रहीं थीं तो इसी राग के सरगम के लहरे पर गत-निकास में नाची गई ‘रुख़्सार की गत’ नायिका के शर्म से लाल हो रहे कपोलों को रूपायित कर रहीं थीं।अपनी सखी से वह उनके साथ अपने प्रथम समागम की एक एक मधुर स्मृति सविस्तार साझा करती है, किस तरह उसके सलज्ज संकोच को दूर कर उन्होंने उसे किसलय की शय्या पर लिटाया, जघनस्थल से रेशमी सारी हटाई इत्यादि, इत्यादि। यहाँ उल्लेखनीय बात यह थी कि यह सब अभिव्यक्त करते हुए उमा जिस तरह निःसंकोच मंच पर लेट गईं, उनके उस प्रगल्भ अभिनय में केवल और केवल माधुर्य था। सौंदर्य-बोध में किसी भी तरह का ख़लल डाले बिना, इस अष्टपदी-विशेष पर पूरी संवेदनशीलता के साथ, उनके भावभीने अभिनय का निर्वाह अद्भुत था।

रसिक दर्शक संयोग शृंगार की जिस पराकाष्ठा पर पहुँच चुके थे उन्हें वहीं छोड़कर ‘रसानुभूति’ संपन्न हो सकती थी, लेकिन जैसा कि कथक के साथ अक्सर होता है, अभिनय के बाद उमा जी ने धमार ताल नाचा और प्रखर पद्विन्यास से अपनी प्रस्तुति संपन्न की! उनका साथ देने वाले उत्कृष्ट कलाकारों में बेहद सुरीले गायक मनोज देसाई ने गायन संगति की, तबले पर कल्लिनाथ मिश्र थे, सितार पर अपर्णा देवधर और पढ़ंत पर उनकी सुबुद्ध शिष्या सरिता कालेले ने।

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