ऐसी मान्यता है कि सृष्टि का उद्भव ‘ओम’ शब्द से हुआ। ओम का नाद ही इस समस्त चर अचर जगत के प्रादुर्भाव का कारण था। भारतीय शास्त्रीय संगीत संभवत: मानव इतिहास की सबसे दुरूह और संपूर्ण संगीत पद्धति कही जा सकती है जिसका व्याकरण पक्ष शुद्ध विज्ञान और गणित है और कला पक्ष दर्शन, साहित्य और मनोविज्ञान और आध्यात्म से जुड़ा है। वैसे देखें तो भारतीय ललित कलाओं का मूल तत्व ही आध्यात्म है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति सामवेद से मानी गई है सामवेद के साम गान मंत्रों, श्लोकों और ऋचाओं का सामूहिक गान थे जिनमें प्रकृति के विभिन्न तत्वों की आराधना की गई थी और आहूतियों के अवसर पर प्रयुक्त सामूहिक गानों का वर्णन था। उत्तर सामवेद काल के विभिन्न चरणों में शास्त्रीय संगीत मुख्यतः समाधि और साधना का उपकरणों की तरह विकसित पल्लवित हुआ। मंदिरों में इसका रक्षण और विकास हुआ अतः इसे कमोवेश पवित्र माना गया। इस युग में संगीत के कई प्रकार रहे जिसमें से ध्रुपद और धमार आज भी गाए जाते हैं।
३०० ईसा पूर्व के ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में भरत मुनि ने नौ रसों का सिद्धांत प्रतिपादित किया जो ‘स्थाई भाव’ कहलाते हैं वे हैं – शृंगार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत। ये सभी, हर मानव की अलग अलग मानसिक और भावात्मक स्थितियाँ हैं और इन्हीं के असंतुलन से सारे मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। अगर संगीत के स्वरों की बात करें तो ऐसी मान्यता है कि सरगम के स्वरों की उत्पत्ति प्राकृतिक स्वरों यथा षडज (सा) की उत्पत्ति मोर की पुकार से, ऋषभ (रे) की चातक पक्षी की आवाज़ से, गांधार (ग) की बकरी के मिमियाने से, मध्यम (म) का आधार कौवे की कां कां से, पंचम (प) के कोयक की कुहुक से, धैवत (ध) का आधार मेंढक की आवाज़ बनी और हाथी की चिंघाड़ को निषाद (नि) में ढाला गया। हम देख सकते हैं, मन के अलग अलग भावों प्रकृति की विभिन्न आवाज़ों के संयोग ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को आधार दिया और आध्यात्म साहित्य और लयकारी ने इसे नई उँचाइयाँ दीं। क्या ही आश्चर्य जब हम इस स्वरों को सुनते गाते बजाते हैं तो प्रकृति के अधिक करीब हो जाते हैं। इन ध्वनियों का परिष्कृत रूप, शब्दों की अभिव्यंजना, भाव लय और ताल के साथ जा गाई बजाई जाती है तो यह सीधे मानव हृदय और आत्मा तक पहुँचती है। कला के सभी माध्यम इन नौ रसों से ही कला की उत्पत्ति करते हैं अथवा ज्ञात या अज्ञात रूप से इन्ही मनोभावों का रेचन करते हैं। यही कारण है सही तरीके से राग और ताल में निबद्ध संगीत सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं करता, यह उससे कहीं आगे जाकर मन की चिकित्सा भी करता है। विदेशों में और अब तो अपने देश में भी म्यूज़िक थेरेपी को मन की चिकित्सा के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। संगीतशास्त्रों में वर्णित स्थाई भाव से निबद्ध रचनाएँ जब सुनने वाले के संपर्क में आते हैं तो वे एक विशेष किस्म के मानसिक और भावत्मक जगत का निर्माण करते हैं, इन्हें ही रस का सिद्धांत कहते हैं और संगीत द्वारा चिकित्सा में यही नियम काम करते हैं।
हम ये कह सकते हैं की भारतीय शास्त्रीय संगीत एक वृहद और गहन चेतना संपन्न जीवन दृष्टि की अंतर्धारा अपने भीतर समाहित रखता है जिसके मूल में समन्वय है। प्रकृति के साथ, वातावरण के साथ, शरीर के साथ और मन के साथ समन्वय। रागों के रचना के पीछे भी यही समन्वयात्मक जीवन दृष्टि काम करती है।
विभिन्न रागों में प्रयुक्त विभिन्न सुर विशेष मानसिक स्थिति (मूड) का सृजन करते हैं और यह भावनाओं के परिष्करण और रेचन में सहायक होता है। हर राग समय विशेष में गाया जाता है और उसके कुछ निश्चित नियम होते हैं, जो अपने आप में एक वृहद अध्याय है। यहाँ यह जानना आवश्यक है को स्वर दो तरह के होते हैं – चल स्वर और अचल स्वर। वे स्वर जो अपनी जगह छोड़कर कोमल या तीव्र हो जाते हैं वे चल स्वर हैं और जो स्वर स्थिर रहते हैं, अपनी जगह नहीं छोड़ते उन्हें अचल स्वर कहा जाता है। सप्तक में सा और प अचल स्वर होते हैं, और शेष स्वरों यथा रे, ग, म, ध और नि अपनी जगह से ऊपर या नीचे जाते हैं तो ये चल स्वर हैं। सारे रागों की रचना इन्हीं स्वरों के संयोग वियोग से होती है और विभिन्न मानसिक स्थितियों तक ले जाती है। इन्हीं स्वरों के भावपूर्ण व्यंजन, लयकारी और ताल में निबद्धगायन को शास्त्रीय गायन की श्रेणी में रख सकते हैं, हालाँकि यह शास्त्रीय गायन की परिभाषा का एक छोटा हिस्सा ही है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में रंजकता के तत्व मुग़लकाल में आए और १५वी शताब्दी में अकबर के समय यह अपने स्वर्णिम युग में आ पहुँचा। ठुमरी और ख़याल की रचना इसी काल में हुई और तानसेन, बैजू बावरा, अमीर ख़ुसरों ने संगीत को नई उँचाइयों तक पहुँचाया। कई रागों की रचना भी इस काल में हुई। ख़याल और ठुमरी के साथ शास्त्रीय संगीत के साहित्य के तत्वों की अधिकता हुई, और यह मन के भावों को व्यक्त करने में अधिक समर्थ हुआ। घरानों की शुरुआत भी इसी काल में मानी जाती है। प्राचीन काल में जहाँ संगीत में पूजा साधना के तत्वों की प्रधानता थी, मुग़लकाल में इसमें शृंगार के तत्व अधिक मात्रा में आए, लोक संगीत को भी समुचित सम्मान मिला और राज दरबारों के संरक्षण से कला और समृद्ध हुई।
स्वर्गीय पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे की चर्चा के बिना संगीत की हर चर्चा अधूरी है। बीसवी सदी के पहले, संगीत का शिक्षण गुरु-शिष्य परंपरा से ही होता था और स्वरलिपियों की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित नहीं हुई थी। पंडित जी ने राग ठाट वर्गीकरण, स्वरलिपियों का समुचित प्रयोग और अन्य कई ऐसी नई विधाएँ शास्त्रीय संगीत के भेंट स्वरूप दीं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत हमेशा उनका ऋणी रहेगा।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी संगीत में नई प्रतिभाओं का आगमन इसके प्रति आशा जगाए रखता है और यह इंगित करता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में जीवन को हर तरीके से समृद्ध करने वाले तत्व हैं। हमारे संगीत की जड़ें जो हज़ारों वर्षों पुरानी हैं अपने भीतर प्राचीनता के साथ नवीनता का भी उतना ही सुंदर समायोजन करने में सक्षम है बशर्ते हममें धैर्य हो और हमारी खोज जारी रहे।