दर्द की पराकाष्ठा सुरों की मिठास छोड़ क्या सुर ही गले से छीन लेती है। दु:खों के पहाड तले किसी गायक के गले के सुर दम तोड़ देते है? सुर परमब्रम्ह है और ब्रम्ह याने सृष्टि.. नवजीवन, फिर कैसे दु:ख अपने आगोश में सुरों को भी ले सकता है। संगीत को खुशी से जोड़कर देखा जाता है परंतु संगीत तो सुख दु:ख दोनों में ही है। दु:ख में संगीत साथी भी बन जाता है और आपको संयत रहने के लिए प्रेरित करता रहता है। परंतु जब दु:ख हद से पार हो जाए तब क्या होता है ? तब भी संगीत ही साथी बनकर साथ रहता है? बिना सुरों के भी संगीत अवचेतन मन में बसे सुरों को झंकृत कर देता है और बिना कुछ बोले, गाए या बजाए भी संगीत कैसे किसी दु:खी व्यक्ति का मौन साथी बन सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है गजल सम्राट जगजीत सिंह की पत्नी चित्रा सिंह।
जगजीतसिंह की पत्नी चित्रासिंह ने गत वर्ष 27 वर्षों बाद वाराणसी के संकटमोचन संगीत समारोह में मंच संभाला पर सुर ना लगे…
किसी कलाकार के भीतर दु:ख कितने गहरा गया था कि पहले 18 वर्ष के जवान बेटे की मौत और फिर पति जगजीत सिंह की मौत के बाद दु:ख से चित्रा सिंह उबर ही नहीं पाई। दु:ख हर तरफ फैल चुका था दिलो दिमाग से आत्मा की गहराईयों तक कि उसके सिवाए कुछ सुझता नहीं और वही जीवनशैली भी बन गई। दु:ख को उन्होंने अपना साथी बना लिया बिना दु:ख के जीवन की कल्पना करना उनके लिए बेमानी हो गया था। आंसुओं की झड़ी जब तक लग जाती थी और सबसे पहले बेटे की मौत ने तो जैसे चित्रा और जगजीत दोनों को ही भीतर तक तोड़ कर रख दिया था।
जगजीत सिंह को सुरों का साथ मिलता रहा और उन्हीं में वे अपने बेटे को खोजते रहे। चित्रा के लिए यह घाव गहरा था वह कुछ सोच नहीं पा रही थी और जब व्यक्ति दु:ख को ही पूर्ण रुप से अंगीकार कर ले तब सोच भी वैसी ही हो जाती है बिल्कुल शून्य की तरह जिसमें भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं बिल्कुल अंधेरे की तरह जो लगातार गहरा होता जा रहा है जिसकी कोई ठोह नहीं कोई आकार नहीं कोई पैमाना नहीं और इसमें व्यक्ति को अपना प्रतिबिंब नजर आता है अंधेरे की तरह। अंधेरे और दु:ख की दोस्ती है दोनों ही एक दुसरों को बढ़ाने का काम करते है। चित्रा इसी अंधेरी गहरी सुरंग में मन को रखा करती थी और सुरंग के मुहाने तक सुर आ भी जाते तब भी वे भीतर तक भेद नहीं पाते थे।
चित्रा के लिए दु:ख ही इतना शास्त्रीय हो गया कि उसमें सुरों की सुगमसंगीत याने गजलों के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं थी। कंठ से बोल फूट रहे थे ये क्या कम थे। उन्होंने सार्वजनिक मंचो पर गाना ही बंद कर दिया या यूं कहे कि गाना ही बंद कर दिया वे जैसे सुरों से रुठ गई थी। बेसुरे दु:ख की कर्कश आवाज इतनी ज्यादा थी कि सुरों की मिठास, चैतन्यता और सच्चापन इसमें कहीं खो गया। चित्रा भी खोना चाहती थी इस कर्कशता में क्योंकि सुरों का मीठापन यादों के गलियारें में से होकर आता था जिसमें बेटे का बचपन, किशोरअवस्था सामने आती थी और बेटे ने जवानी में कदम ही रखना आरंभ किए थे कि उसकी मौत हो गई।
एक मां खामोश हो गई और गायिका को अपने साथ ले गई। ममता हावी हो गई और कलाकार हार गया। चित्रा सिंह ने अपने आप को उबारने की खूब कोशिश की पर यह न हो सका वे खामोशी के साथ सुरों से अपने मन की बात कहती और शायद सुर भी यह कहते होंगे कि इतने दु:ख भरे तो हम भी न हो सकेंगे। पति जगजीत सिंह की मौत के बाद चित्रा सिंह को भीतर तक झकझोर दिया पर यह झकझोरना याने एक दु:ख में से निकल कर दुसरे दु:ख की ओर जाना याने दु:ख के स्केल में बढोत्तरी करना ही था।
चित्रा सिंह को पति जगजीतसिंह की याद में सार्वजनिक कार्यक्रम में आना पड़ा। पहली बरसी पर तमाम गायकों ने अपने लाड़ले गायक को याद किया और सुरों से श्रद्धांजलि भी दी। इस समय भी चित्रा मौन ही रही ज्यादा मंच पर नहीं आई और ज्यादा बोल भी नहीं पाई। पति की मृत्यु को तीन वर्ष बीत जाने के बाद चाहने वालो ने संकटमोचन हनुमान मंदिर वाराणसी में गाने के लिए कहा पहले चित्रा सिंह नहीं मानी पर पति की यादों में से एक छोटी याद उनके दिमाग में कौंधी जगजीत सिंह अपनी पत्नी के साथ गंगा में दीपदान करना चाहते थे।
चित्रा सिंह को यहीं सुख का कोना नजर आया और वे राजी हो गई। पर मंच पर पहुंची तब 27 वर्षों के दु:ख ने अपने आगोश में ले लिया और आंसुओं को भी बुला लिया… सुर कंठ से फूटने ही वाले थे कि गला रुंध गया… आंसुओं का सैलाब बह निकला… कंपकंपाती आवाज में कहा “माईक से रिश्ता टूट चुका है जिंदा रही तो अगले वर्ष गाऊंगी…”
जगजीत और चित्रा के चाहने वालों के लिए चित्रा सिंह का मंच पर आना और अगले वर्ष गाउंगी यही बहुत था… सभी चाहते है कि चित्रा सिंह गाएं हमारे जगजीतसिंह के लिए जो चले गए जाने कौन से देस…!
इस घटना को डेढ़ वर्ष से ज्यादा समय गुजर चुका है परंतु यह घटना अपने आप में संगीत के क्षेत्र में हरदम यह उदाहरण प्रस्तुत करती रहती है कि संगीत दिल पर लगे गहरे जख्मों पर मरहम लगा सकता है और जाने अनजाने कभी न कभी यह संगीत जख्मों को भरने का माद्दा रखता है।