आज, यानी सत्रह मई को नृत्य जगत अपनी प्यारी, सदाबहार ‘कुम्मीबेन’ (श्रीमती कुमुदिनी लाखिया) का नब्बेवां जन्मदिन मना रहा है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘कथक’ में युगान्तकारी परिवर्तन लाने वाली चिंतनशील विचारक और प्रयोक्ता विदुषी कुमुदिनी लाखिया नृत्य के क्षेत्र में आजीवन अदम्य ऊर्जा से सृजनरत रही हैं। लीक से अलग हट कर अपनी पहचान बनाने वाली उनकी रचनाधर्मिता ने कथक नृत्य पर उनका अपना ठप्पा लगाया है जो आज उनका अपना अनुपेक्षणीय हस्ताक्षर बन चुका है! कला के क्षेत्र में उनके बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें पद्म-भूषण और संगीत नाटक अकादमी अवार्ड तथा ‘रत्न-सदस्यता’ सहित अनेक सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। उनके द्वारा अहमदाबाद में स्थापित नृत्य संस्थान ‘कदम्ब’ से प्रशिक्षित कलाकारों ने और यहां तैयार की गई एक से बढ़कर एक नृत्य-कृतियों ने उन्हें एक समर्थ गुरु एवं कल्पनाशील नृत्यसनरचनाकार के रूप में विश्वजनीन ख्याति दिलाई है। कदम्ब प्रतीक है उनकी सोच का, उस सुगन्धित पुष्प-वृक्ष का जिसके फूल आज देश विदेश में कुमुदिनी की उर्वर कल्पना और कमनीय कला की सुगंध बिखेर रहे हैं।
केवल तीन प्रशिशार्थियों के साथ उन्होंने जब ‘कदम्ब’ का कोमल पौधा अहमदाबाद की ऊसर धरती पर रोपा था तब वहाँ कथक का नामों-निशान नहीं था। कोठों या फिल्मों से जोड़कर इस त्याज्य मान लिए गए नृत्य को हिकारत की नज़र से देखा जाता था। भले घर की लड़कियों के लिए सर्वथा वर्जित यह शास्त्रीय नृत्य शैली इस शहर में पहली बार कुमुदिनी के भगीरथ प्रयास से अपनी पूरी गरिमा के साथ प्रतिष्ठित हुई. हालांकि ‘कदम्ब’ की स्थापना के उस शुरूआती दौर में उनकी संगत के लिए उस शहर में कोई तबला-वादक तक मयस्सर नहीं था। सौभाग्य से पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर के शिष्य अतुल देसाई से हुई अचानक मुलाक़ात और मित्रता ने संगीत सम्बन्धी उनकी मुश्किलें आसान कर दीं। अतुल कुमुदिनी की सर्जनात्मक सोच के साथी बने और उनकी नृत्य संरचनाओं में कुमुदिनी की कल्पना के अनुरूप संगीत संयोजन में उनके साथ जुट गए. दोनों का आपसी परामर्श अक्सर तक़रार की सीमा तक पहुँच जाता लेकिन परिणाम-स्वरुप सिरजा संगीत कुमुदिनी की अनूठी नृत्य-संरचनाओं में प्राण संचार कर देता।
विश्व-प्रसिद्ध नर्तक, नृत्य-संरचनाकार रामगोपाल के नृत्यदल के साथ देश-विदेश का भ्रमण कर चुकी कुमुदिनी जब एक प्रतिभाशाली प्रत्याशी के रूप में संगीत नाटक अकादमी द्वारा छात्रवृत्ति के लिए चुनी गईं और दिल्ली में लखनऊ घराने के दिग्गज शम्भू महाराज और जयपुर घराने के गुरु सुन्दर प्रसाद से कथक का विधिवत प्रशिक्षण ले कर अहमदाबाद लौटीं तो उनके पास एक ओर इस शास्त्रीय नृत्य विधा का प्रामाणिक ज्ञान था तो दूसरी ओर रामगोपाल की नृत्य मंडली में काम और विश्व-स्तरीय प्रस्तुतियों के अनुभव से उपजे सौंदर्यबोध का सबल संबल! एक ऐसी कसौटी, जिसपर कस के उन्होंने सुरुचिपूर्ण वेशभूषा से लेकर प्रकाश और ध्वनि संयोजन तक, और संगीत से लेकर नृत्य-संरचना तक के अपने मानदंड स्वयं तय किये।
लीक से अलग हट कर चुनी गई सुचिंतित-सुविचारित विषय-वस्तु और उसके प्रयोगजन्य प्रतिपादन की व्यसायिक तराश ने देखते ही देखते नृत्यजगत में उनके काम और नाम की धूम मचा दी। कुमुदिनी ने पहली बार कथक के एकल स्वभाव और चरित्र को बदला और उसकी व्याकरण को अक्षत रखते हुए भी अपने सौंदर्यबोध से सँवारे नए रूपाकारों में ढाल कर उसे सामूहिक प्रस्तुति की मनमोहक बानगी दी। उनके नवोन्मेष की मिसाल के तौर उनकी कुछेक स्मरणीय नृत्य कृतियो में एक ओर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘कोट’ याद आती है तो दूसरी ओर द्वंद्व, सेतु, धबकार, अतः किम इत्यादि अनेक नृत्य संरचनाएं! पर सच तो यह है कि उनकी हर पेशकश एक अलग ही रूप, रंग और आस्वाद लेकर आई. फिल्म जगत ने भी उनकी प्रतिभा का लोहा माना। ‘उमराव जान’ फिल्म में उनके नृत्य निर्देशन को कौन भूल सकता है! रेखा से पहले जयप्रभा भी उनके नृत्य निर्देशन में काम कर चुकी थीं। लेकिन फिल्म जगत का प्रलोभन उन्हें फिल्मों की दुनिया में बाँध न सका।
आज नब्बे वर्ष की उम्र में भी उनकी जीवंतता ज्यों की त्यों बरक़रार है। कदम्ब में विगत साठ साल से कथक का अनवरत प्रशिक्षण चल रहा है। एक ओर उनकी पुरानी शिष्य-शिष्याएं देश विदेश में उनका अलख जगा रही हैं तो दूसरी ओर नई पीढ़ी की नयी पौध लहलहा रही है। नित नयी नृत्य संरचनाएं नए रूपाकार ले रही हैं और कोविद की इस क़ैद को वरदान समझ कर वह आज भी पूरी ऊर्जा से अपने काम में जुटी हुई हैं। उनकी सर्जनात्मक सोच और संवेदनशीलता ही शायद उनकी सदाबहार जीवंतता का राज़ है। आज उनके जन्मदिन पर हम सब उनकी दीर्घायुष्य की कामना करते हैं। ईश्वर उन्हें सदा स्वस्थ और सृजनशील बनाये रखे!