विश्वप्रसिद्ध वायलिन वादक पद्मश्री पंडित डी. के. दातार का कल दि. १० अक्टूबर को मुंबई में निधन हो गया। वे ८६ वर्ष के थे।
उनके चेहरे की मृदु मुस्कान भीतर की पवित्र आत्मा के बारे कुछ कह देती थी… वे निर्मलता के परिचायक थे और सच्चे सुरों के साधक थे… पद्मश्री पं.डी.के. दातार का जाना सही मायने में वायलिन वादन के क्षेत्र में एक युग का अंत होना है।
पं. व्ही. जोग के बाद वायलिन वादन के क्षेत्र में पं. डी.के. दातार ही सबसे वरिष्ठ क्रम पर थे। पं. विघ्नेश्वर शास्त्री और प्रो बी.आर. देवधर जैसी महान विभूतियों से प्रशिक्षण प्राप्त पंडित दातार का वायलिन वादन गायकी के नजदीक था और यही कारण था कि उनका मारुबिहाग हो या फिर भजन सबकुछ मधुरता में लिपटा हुआ था।
पं. डी. वी. पलुस्कर के कारण पंडितजी के वायलिन वादन में गायकी अंग प्राधान्य हो गया। वे किसी भी राग को सतही तौर पर बजाने में विश्वास नहीं करते बल्कि उनका वादन सुने तब राग को संपूर्णता के साथ प्रस्तुत करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि सुरों का माधुर्य और राग संपूर्ण शास्त्रीयता के साथ सुनने वालों तक पहुंचे।
वायलिन में मींड और गमक को बजाना कठिन माना जाता है और सीधे सपाट सुर सभी लगा लेते है परंतु मींड गमक के लिए काफी अभ्यास की जरुरत होती है। स्पष्टता के साथ गमक लाने के लिए फिंगरिंग और बोइंग दोनो का ध्यान रखना पड़ता है। गज याने बो पर उत्तर भारतीय वायलिन वादन में कम ही ध्यान रखा जाता है परंतु पंडित जी ने विलंबित गत से लेकर झाले तक भी गज के महत्व को समझा और उसी अनुरुप अपने वादन को ढाला भी।
पद्मश्री के अलावा संगीत नाटक अकादमी और कई अन्य पुरस्कारों से नवाजे जा चुके पंडित डी.के. दातार ने न केवल बेहतरीन वायलिन वादन किया बल्कि उन्होंने एक बड़ा शिष्यवर्ग भी तैयार किया। वर्तमान में उनके शिष्यों के शिष्य भी बेहतरीन वायलिन वादन कर रहे है।
पं. डी. के. दातार के संबंध में प्रसिद्ध वायलिन वादक डॉ. रमेश तागड़े का कहना है कि “निश्चित रुप से पंडित जी का जाना वायलिन के एक युग का अंत है। पंडितजी ने शास्त्रीयता का हरदम मान रखा और रागों की शुद्धता पर काफी ध्यान दिया। कुछ समय पूर्व ही मुंबई के विले पार्ले इलाके में एक कार्यक्रम के दौरान उनसे भेंट हुई थी और वे अपनी धर्मपत्नी के साथ कार्यक्रम में आए थे। इस कार्यक्रम में मेरा सम्मान किया गया था और वे विशेष रुप से मुझसे मिलने के लिए आए थे जबाकि तबियत उनका साथ दे नहीं रही थी। मिलनसार पंडित डी के दातार मुझसे मिलकर भावुक हो गए थे और संगीत की सेवा लगातार करते रहने के लिए कह रहे थे। पंडित डी के दातार के बजाए राग मारुबिहाग, मिश्र पीलू की धुन हो सुनने में बेहद कर्णप्रिय है। गमक की तानों के अलावा द्रुत वादन भी उनका अद्भुत था। निश्चित रुप से पंडित जी का जाना भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए अपूरणीय क्षति है।”