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राजस्थान से ही है ध्रुवपद की चारों वाणियों का संबंध

प्रथम से पांचवी सदी तक भारतीय संगीत नृत्य कला परंपरा का व्यापक विस्तार हुआ तथा यह कलाएं भारत में एशिया तक पहुंची अनेक संस्कृतियों, अनेक शासन व अनेक कालों का असर संगीत पर पड़ा और भारतीय संगीत नृत्य कलाएं भारतीय से हिंदुस्तानी बन गई।

आठवीं से दसवीं शताब्दी इन कलाओं के ह्रास का इतिहास रहा है। अति प्राचीन काल में भारतीय संगीत की रचनाएं संस्कृत भाषा में थी। प्राचीन ध्रुवपद में कई प्रकार के संशोधन हो गए। जिसमें ख्याल शैली की उत्पत्ति प्रमुख है। ख्याल गायन शैली को हिंदू मुसलमान दोनों कलाकारों ने बखूबी निभाया। किंतु धीरे-धीरे ख्याल गायन जनमानस की भावनाओं पर अधिकार जमाने लगा। यह शैली नवीन तथा भावनाप्रधान होने से लोकप्रिय हुई। उनके पूर्वज ध्रुवपद गाया करते थे और किसी ना किसी ध्रुवपद वाणी से संबंधित थे।

वैसे तो ध्रुवपद की अनेक किंवदंतियां कई साहित्यकारों के अनुसार सामने आई हैं। परंतु प्रताप सिंह चौधरी ने राजस्थान संगीत और संगीतकार पुस्तक में ध्रुवपद की चारों वाणियों और तानसेन के वंश परंपरा का संपूर्ण परिचय पुस्तक में दिया है। आपने बताया है कि तानसेन के चार पुत्र और दो पुत्रियां थी और अजमेर दरगाह बाजार स्थित एक मस्जिद में शिलालेख पर फारसी भाषा में आज भी इसका प्रमाण मिलता है।

ध्रुवपद की चार वाणियाँ डागर, खंडारी, नोहारी, गोरारी या गौरहारी का उल्लेख किया गया है। इन वाणियों की स्थापना की पृष्ठभूमि की चर्चा करना आवश्यक है।

मध्यकाल में घराना शब्द नहीं होकर जाती ही है अथवा क्षेत्र के नाम से गायक की पहचान होती थी। सभी विद्वान तानसेन की गायकी को गौरहारि (गोरारी) वाणी की संज्ञा देते है। कुछ लोग तानसेन को गाने बजाने वाली दमामी जाति के गोरे जाति का मानते हैं।गोरे जाति का राजस्थान में अपना प्रमाणित इतिहास है। सन 1394 में जलगांव नागौर राजस्थान के गोरा नामक चौहान जो राग हमीर (रणथंभौर) की सेना का सामन्त था, हाथी-सिरोपाव आदि देकर राव चूड़ा ने इन्हें अपना गायक बनाया। गौरा की संतान ही गौरारी कहलाती है। आचार्य ब्रहस्पती ने तानसेन को संगीत की जाति का बताया है। आज भी राजस्थान में गोरेर वंश के लोगों के परिवार सवाई माधोपुर तथा बूंदी क्षेत्र में काफी है। सवाई माधोपुर की राजधानी रणथंबोर थी जो वर्तमान में सवाई माधोपुर जिले में है। तथा खंडार जिले का एक बहुत पुराना एवं वैभवशाली नगर रहा है। जिससे ध्रुवपद की खंडारी वाणी मानी जाती है। सवाई माधोपुर का क्षेत्र मध्य प्रदेश की सीमा ग्वालियर के काफी निकट है, तथा दूसरी और आगरा से भी दूर नहीं है।

डागुर वाणी के प्रवर्तक डांग क्षेत्र के ब्रजेश चंद्र को माना जाता है। डांग क्षेत्र को दिल्ली के निकट बताया गया है, जो सही नहीं है डांग क्षेत्र वास्तव में राजस्थान के वर्तमान सवाई माधोपुर जिला अंतर्गत हिंडौन करौली का क्षेत्र है। यह क्षेत्र आज भी डांग कहलाता है। वह भाग आगरा के निकट है डांग का अर्थ गहरा जंगल और वन्य पशुओं के निवास का क्षेत्र। स्थानीय लोग और उनकी बोली डांगरी नाम से प्रसिद्ध रही है। डांग, डांगरी आदि शब्दों से ही डागर शब्द का प्रचलन हुआ है।

 

रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास | स्त्रोत: radhavinodbihari.com

स्वामी हरिदास जी को वर्तमान भरतपुर जिले के इस ही  गांव के निवासी होना बताया गया है। वर्तमान में राजस्थान के राजवंश के ध्रुवपद गायक अपना संबंध स्वामी हरिदास की वंश परंपरा से ही मानते हैं। कालानुसार इस वर्ग के लोगों ने परिस्थितिवश मुस्लिम धर्म अख्तियार किया था। डागर घराना राजस्थान में ही विकसित हुआ और आज भी इस शैली के गायक राजस्थान के डागर परिवार के ही है।

 

खंडार वाणी राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले में खंडार गांव से संबंधित खंडार वाणी मानी जाती है।प्रसिद्ध राजा सम्मोहन सिंह को इस वाणी का प्रवर्तक माना जाता है। इस के पुत्र श्री मीश्री सिंह की शादी तानसेन की पुत्री सरस्वती से हुई थी। सम्मोहन सिंह वर्तमान किशनगढ़ के अधिपति थे। किशनगढ़ के शासक सूर्यवंशी राठौड़ थे। इनकी वादन शैली में खंडार वाणी की प्राण प्रतिष्ठा थी। इसलिए उनके वंशजों का खंडारी वाणी गोत्र कहलाया। राजस्थान के खंडार क्षेत्र की बोली ‘खण्डारी’ नाम से जानी जाती रही। यहां खंडार के बारे में उल्लेख करना प्रासंगिक है।

राजस्थान के सवाईमाधोपुर से 40 किलोमीटर दूर तथा सुप्रसिद्ध दुर्ग रणथंबोर से 14 किलोमीटर पर रामेश्वर मध्य प्रदेश की सीमा से 18 किलोमीटर दूरी पर प्राचीन खंडार दुर्ग खंडार का प्राचीन नाम तारागढ़ था। युद्ध के दौरान यह प्राचीन दुर्ग नष्ट होकर खंडहर बन गया। जिससे कालांतर में इस नगर का नाम खंडार पड़ गया। इतिहास के अनुसार इस किले की स्थापना सिसोदिया वंश द्वारा की गई थी। खिलजी,लोधी, गुर्जर, कुशवाहा, मराठा वंशों का यहां पर प्रभुत्व रहा। इस किले में महल, मंदिर, मस्जिद, तालाब आदि के खंडित अवशेष भी मौजूद हैं। इस गढ़ की पहाड़ी में प्राचीन महल, गुफा, प्रतिमाएं 5 समूहों में विद्यमान है। इसमें जैन प्रतिमाएं 10 से 13 वीं सदी की है। यहां संवत 1230 तथा 1568 के शिलालेख भी उपलब्ध हैं। इस गुफा के दाहिनी और बाहरी चट्टान पर 6 पंक्तियों में संवत 1568 का लेख अंकित है। इसमें ग्वालियर के महाराजा मानसिंह तथा खंडार दुर्गा का उल्लेख है। इस शिलालेख की पंक्तियों में मुगल शासक सलाहुद्दीन का उल्लेख है, जो राणा सांगा और बाबर का समकालीन था। यह गुफाएं तथा मंदिर वर्तमान में राजस्थान सरकार के पुरातत्व विभाग के संरक्षित स्मारकों की श्रेणी में है।

अकबर की उपस्थिति में स्वामी हरिदास से शिक्षा लेते तानसेन | स्त्रोत: wikipedia

नोहर वाणी नोहर राजस्थान के श्री गंगानगर जिले में स्थित है। नोहर वाणी के प्रवर्तक श्रीचंद माने गए हैं। सभी विद्वानों ने नोहर वाणी को नोहर ग्राम तथा श्रीचंद से ही संबंधित माना है। श्रीचंद स्वामी हरिदास के शिष्य थे इस्लाम धर्म स्वीकारने पर इनका नाम सूरजखाँ हुआ। कहीं कहीं यह भी लिखा गया है, कि मिश्री सिंह के वंशज डागर और खंडार वाणी दोनों को प्रयोग में लाते थे। अभी तक विद्वानों ने जो कुछ भी लिखा है उसके अनुसार ध्रुवपद की चारों शैलियों का संबंध राजस्थान से ही है। उपयुक्त विवरण इन तथ्यों की पुष्टि करता है।

तानसेन की परंपरा में ग्वालियर घराना, सेनिया घराना कायम हुआ। तानसेन के पुत्र सूरतसेन तथा विलास खां के वंशज जयपुर क्षेत्र में बसे उनकी वंशावली सितार के सैन्य घराने की चर्चा के साथ आगे दी जा रही है। इस घराने में गायक वादक दोनों हुए।

विद्वानों का मानना है कि तानसेन के पुत्र विलास का के वंशज और दामाद मिश्री सिंह के घरानों में आपसी गहरा संबंध रहा। ध्रुवपद में शुद्ध वाणी और वाद्यों में उन्होंने रबाब में विशेषता हासिल की। बैजू बावरा एवं नायक बक्शू द्वारा स्थापित और नायक गोपाल द्वारा प्रचारित गान पद्धति के कारण कलावंतो का एक विशेष वर्ग बन गया। अमीर खुसरो ने कव्वाली शैली को जन्म दिया। यह विधा गायन में आगे चलकर कव्वाल बच्चों का घराना कहलाया।

राजस्थान में पुष्टि मार्गी संप्रदाय के केंद्रों में तो आज भी प्राचीन परंपरागत रुप से ध्रुवपद धमार शैली का ही गायन होता है। इस संप्रदाय के गायक कीर्तनकार अपनी शैली को गौरहार वाणी के निकट मानते हैं ना केवल राजा महाराजाओं के राजाश्रय में वरन धार्मिक दृष्टि से भी गौरहारी शैली का बड़ा महत्व राजस्थान में रहा है।

इन्हीं तथ्यों को दृष्टि पथ में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि राजस्थान में शास्त्रीय संगीत एवं लोक संगीत का समन्वय शुरू से अब तक रहा है।

प्रसिद्ध ध्रुपद गायक पं. उदय भवालकर (डागर घराना) की प्रस्तुति

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