कहते है संगीत परमब्रम्ह है… निश्चित रुप से संगीत के सुरों की मिठास और अमृत की बूंदे आपस में रिश्तेदार ही होंगी जिसके कारण संगीत यह सुनते ही हम अलग तरह का रोमांच अनुभव करते है। यह सांगितिक रोमांच क्या है और अगर हम इस रोमांच में भक्ति को भी जोड़ दें तब क्या होता है?
कितना फर्क पड़ता है अगर हम राग बागेश्री की कोई बंदिश सुन रहे है और फिर उस बंदिश की जगह बागेश्री राग में ही एक भजन सुने। यह शाश्वत सत्य है कि सुर और शब्दों की अलग अलग सल्तनत है और वे दोनों जब एक हो जाते है तब दुनिया अपनी मुठ्ठी में कर लेते है। सुर और शब्द की बात है पर भक्तिरस अपने आप में अलग बात है। शब्दों में छुपी भक्ति जब सुरों का साथ लेकर प्रस्तुत होती है तब सही मायने में संगीत का आनंद परमानंद में बदल जाता है। भक्ति रस में समर्पण भाव है उस परमपिता परमेश्वर के प्रति और संगीत के सुरों को सही तरह से प्रस्तुत करने में भी समर्पण भाव की जरुरत होती है। संगीत की भक्ति करना भी बेहद समर्पण की मांग करता है वही भक्ति मार्ग पर जाना हो तब भी समर्पण बेहद जरुरी है।
क्या कभी गौर किया कि भक्ति के शब्द जब सुरों के साथ आत्मसात हो जाते है तब जो रसोत्पत्ती होती है वह सामान्य तौर पर प्रस्तुत सुरों में नहीं हो पाती । इसका सीधा सा कारण है कि सुरों को भक्ति के स्वभाव के साथ प्रस्तुत किया जाता है याने भावपक्ष आ गया।
भक्ति और संगीत के संबंध बेहद निकट का है इन संबंधों में हम एक दुसरे के प्रति सम्मान… सामंजस्य, समन्वय, समभाव देख सकते है। किसी भी भक्ति रचना में शब्द को आत्मा कहा जाता है परंतु मेरा मानना है कि शब्द और सुर जब एकाकार हो जाते है तभी जाकर परमानंद की उत्पत्ती हो पाती है। एक पक्ष यह भी है कि जिसे शब्द समझ में आए वही तो भावनात्मक रुप से परमानंद का साक्षी हो पाएगा वरना उसके लिए तो वही सुर है और सुरों के माध्यम से जो रस उत्पन्न हो रहा है वह बस उस सीमा तक ही आनंद ले पाएगा और उसके आगे नहीं जा पाएगा। पर दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उसे शब्द समझ नहीं आ रहे हो तब भी अगर उसे केवल यह बताया जाए कि यह भक्ति रचना है तब उसका नजरिया बदल जाता है।
इतना ही नहीं जैसे कबीर के निर्गुणी भजन हो तब उन भजनों को सभी प्रकार के श्रोतागण बड़े ही भक्तिभाव के साथ सुनते है फिर इसमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के श्रोताओं का किसी भी प्रकार से भेद नहीं रहता। भक्ति के बीज पड़ते है जबकि संगीत जन्मजात रहता है। कोई भी व्यक्ति जिसका संगीत से कोई सरोकार नहीं वह भी सुरों के समक्ष नतमस्तक हो ही जाता है क्योंकि सुर ब्रम्ह है और अपने मूल के आगे अपने आप व्यक्ति झुक ही जाता है। जैसे प्रकृति के सम्मुख हम अपने आप को बौना समझने लगते है जिसका कारण है कि हमारा मूल वही है। सुर भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है इस कारण हम सुरों के सम्मुख नतमस्तक होते ही है। जब भक्ति सुरों का चोला ओढ़कर आत्मा के मर्म को स्पर्श करती है तब स्वयं भगवान के स्पर्श के समान एहसास होता है। भक्ति और संगीत जब एक दूसरे के सहायक बन जाते है तब अपने आप में एक अलग ही विश्व का निर्माण होता है जो आपको भीतर तक प्रभावित कर देता है।