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सरगम मंदिर का ६०वाँ महाशिवरात्रि संगीत सम्मेलन

राजधानी के प्रतिष्ठित संगीत संस्थान ‘सरगम मंदिर’ की स्थापना स्वर्गीय पंडित जगदीश मोहन ने भारतीय कला और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के जिस पावन उद्देश्य से की थी, उसी के तहत महाशिवरात्रि संगीत सम्मेलन का वार्षिक आयोजन भी विगत छह दशकों से निरंतर किया जा रहा है। देश के लगभग सभी ख्यातनाम मूर्धन्य कलाकार इसमें भाग ले चुके हैं। इस वर्ष ६०वाँ महाशिवरात्रि संगीत सम्मेलन त्रिवेणी सभागार में आठ मार्च को सोत्साह संपन्न हुआ। इस अवसर पर संगीत के प्रति आजीवन समर्पित वरिष्ठ कलाकारों को सम्मानित किए जाने की जो श्लाघ्य परंपरा रही है उस शृंखला में इस बार पंडित विजय शंकर मिश्र को पंडित जगदीश मोहन सम्मान प्रदान किया गया।

महाशिवरात्रि संगीत सम्मेलन-२०२४ का शुभारंभ युवा प्रतिभा शुभम् सरकार के वायलिन-वादन से हुआ। जाने-माने तबला-वादक एवं गुरु पंडित प्रदीप सरकार के सुपुत्र शिवम् सरकार तबला और वायलिन दोनों ही वाद्यों के प्रतिभाशाली युवा वादक हैं। नामचीन तबलवादक पिता से तबला-वादन की शिक्षा तो उन्हें बचपन से ही मिलती रही लेकिन ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होंने पंडित एस एल कंडारा से वायलिन सीखना शुरू किया, और केवल दो वर्षों के प्रशिक्षण एवं अपने परिश्रम के चलते कुल तेरह वर्ष की आयु में उन्होंने वायलिन-वादन का अपना पहला  मंच-प्रदर्शन करके सबको विस्मित कर दिया। अंग्रेज़ी कहावत में कहें तो उन्होंने फिर पीछे मुड कर नहीं देखा। उनकी प्रतिभा देख कर पंडित भजन सोपोरी और पंडित विश्व मोहन भट्ट जैसे वरिष्ठों ने उन्हें प्रोत्साहित किया। आजकल वे पंडित संतोष नाहर के मार्गदर्शन में वायलिन एवं डा मल्लिका बनर्जी से गायकी अंग का प्रशिक्षण ले रहे हैं।

समारोह की शुरुआती औपचारिकताओं के बाद शाम के लगभग सात बजे शुभम् जब मंच पर वायलिन-वादन के लिए बैठे तो राग भीमपलासी का चुनाव रागों के समय-सिद्धांत के अनुरूप नहीं था फिर भी प्रारंभिक आलाप से ही उनकी वायलिन की मिठास ने श्रोताओं को मुग्ध कर लिया। आलाप-जोड़ के दौरान मंद्र विस्तार की गंभीरता के लिए उन्होंने जिस वायलिन का इस्तेमाल किया था उसे छोड़ कर मध्य षड्ज पर आते ही दूसरी वायलिन उठा ली और आगे की पूरी प्रस्तुति उसी पर दी।उनकी इस बात ने पुराने ज़माने की याद दिला दी, जिस तरह सुर-बहार पर सविस्तार आलाप बजाने के बाद बुजुर्ग उस्ताद सितार पर गत-तोड़ा आदि बजाते थे!

वायलिन प्रस्तुति देते शुभम सरकार एवं पंडित प्रदीप सरकार (तबला)

तबले पर उनका साथ देने उनके गुरु-पिता पंडित प्रदीप सरकार स्वयं थे। आलाप-जोड़ के बाद शुभम् ने नौ मात्रा के मत्त ताल में बंदिश शुरू की तो तबले की पहली ही उठान पर उनका भी तालियों से स्वागत हुआ। मध्य-विलंबित लय में इस बंदिश को बजाते हुए शुभम् ने सुर और लय दोनों पर ही अपनी सराहनीय पकड़ से प्रभावित किया। तीनताल में निबद्ध द्रुत गत के दौरान साफ़-सुथरी, तैयार तानों के बाद तबले के साथ सवाल-जवाब का दौर भी चला। चारुकेशी उनकी अगली पेशकश थी, जिसमें थोड़ी सी आलाप से राग का वातावरण रच कर उन्होंने अद्धे ठेके में बंधी एक मीठी बंदिश बजाकर अपनी प्रस्तुति का समापन किया।शुभम् के हाथ ही नहीं, कान भी सुर के प्रति चौकन्ने दिखे।वायलिन या तबला ज़रा सा भी श्रुति-च्युत (कंसुरा) होता तो वे रुक कर उन्हें मिला लेने बाद ही आगे बढ़ते। गज़ (बो) की सही पकड़ उनको बजाने में और सहूलियत दे सकती है!

पुष्टिमार्गीय स्वामी वल्लभाचार्य के वंशज, हवेली संगीत के प्रमुख आचार्य पंडित गोकुलोत्सव महाराज का गायन इस शाम का प्रमुख आकर्षण था। पद्मश्री, पद्मभूषण जैसी उपाधियों और तानसेन सम्मान जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित गोकुलत्सव महाराज अपनी सर्वांग गायकी के लिए विश्रुत हैं जिसमें सामगान से लेकर प्रबंध और ध्रुपद-धमार, पुष्टिमार्गीय हवेली संगीत से लेकर ख़्याल और भजन तक शामिल है। महाराज ने अनेक राग रचे और ‘मधुर-पिया’ उपनाम से सैकड़ों बंदिशें रचीं। अपने गुरु-पिता गोस्वामी गिरिधर लाल से वेद-वेदांत, संगीत-शास्त्र और हवेली संगीत सीखने के अलावा उन्होंने पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के शिष्य किराना घराने के पंडित मोरेश्वर गोलवलकर से शास्त्रीय संगीत की तालीम ली। उस्ताद अमीर ख़ाँ की गायकी से भी वे प्रभावित हुए, विशेषकर वल्लभ संप्रदाय के कुछ पदों के उनके गायन से, जैसे “पलकन से मग झारू” या “ए मोरी आली’ इत्यादि या उन्होंने चारुकेशी में जो बंदिश बनाई “लाज रखो तुम मोरी गोसैयाँ/ ध्यान धरो लागूँ तोरे पैयाँ “ इत्यादि ने उन्हें उस्ताद अमीर खाँ का प्रशंसक बनाया।बहुत से लोगों को उन्हें सुनकर उस्ताद अमीर ख़ाँ की याद आती है।

पंडित विजय शंकर मिश्र को पंडित जगदीश मोहन सम्मान प्रदान किये जाने एवं पंडित गोकुलोत्सव महाराज का स्वागत के चित्र

पंडित गोकुलोत्सव जी महाराज का इस शाम गायन में साथ देने के लिए उनके शिष्य और सुपुत्र आचार्य ब्रजेश्वर महाराज, हारमोनियम पर आशिक़ कुमार और तबले पर सागर  गुजराती थे। राग जोगकौंस से अपने प्रभावी गायन का शुभारंभ करते हुए उन्होंने विलंबित और द्रुत दोनों ही रचनायें स्वनिर्मित प्रस्तुत कीं। जोगकौंस की परिचयात्मक आलाप के बाद विलंबित झूमरा ताल में निबद्ध बड़े ख़याल के बोल थे “भज रे मन श्री राम”, जिसे पूरी भक्तिमयता से बरतते हुए उन्होंने इस सायंकालीन राग की अंदरूनी परतों को सुर दर सुर बड़े जतन से खोला। राग की बढ़त-विस्तार, बोल-आलाप से लेकर हरहराती तानों तक में उनका गायन कौशल दर्शनीय था, जहां व्रजोत्सव महाराज ने भी उल्लेखनीय योगदान किया। तीनताल मध्य लय की बंदिश “अयोध्या धाम विराजे राम” की सरगम और आकार तानों में व्रजेश्वर जे के अलावा साथी कलाकारों का उत्साह भी छलकता रहा।पूरे वातावरण को ‘राम-मय’ बना देने वाले इस भक्तिसिक्त चरमोत्कर्ष के बाद  जोगकौंस की आम-फ़हम बंदिश जैसी ध्वनित होती “प्रीत न जानी रे गुमानी” छोड़ी जा सकती थी।

वसंत ऋतु में अगली पेशकश के लिए राग बसंत का चुनाव सर्वथा समीचीन था लेकिन तीनताल की बंदिश “ऋतु,बसंत चहुँ बन बन बोले” के रचयिता महाराज के पौत्र हैं यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ। अंतरे में फाग का प्रसंग और उनकी “उमंग-रंग’ मुद्रा का समावेश सुंदर था।गुकुलोत्सव जी महाराज अपनी प्रस्तुति को यहीं विराम देना चाहते थे किंतु श्रोताओं के आग्रह पर उन्हें अड़ाना की बंदिश “झनक झनक पायल बाजे” भी गानी पड़ी।

६०वें महाशिवरात्रि संगीत सम्मेलन २०२४ का आयोजन जयभारत, विष्णु नारायण भातखंडे समंगित महाविद्यालय एवं साहित्य कला परिषद के सौजन्य से हुआ था। दिवंगत जगदीश मोहन जी के सुपुत्र एवं ‘सरगम मंदिर’ संस्था के सचिव पंडित दीपक शर्मा ने उनका तथा आमंत्रित अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए समारोह संपन्न किया।

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