ग्वालियर। यह अपने आप में मुग्ध करने वाला अनुभव है..सुर वहां मौजूद है इस बात का एहसास अपने आप होता है एक दैविक अनुभव होता है एक अलग ऊर्जा महसूस होती है। सुर सम्राट तानसेन के समाधि स्थल पर जाकर हरिकथा और मीलाद कार्यक्रम को स्वयं अनुभव करना परंपरा से सीधा साक्षात्कार करने जैसा और सुरों की पवित्रता का एहसास करने जैसा है। तानसेन समारोह की ऐसा ही शुभारंभ होता है।
एक संकरी गली से होते हुए आप समाधि स्थल पर पहुंचते है ठीक सामने मौहम्मद गौस साहब का समाधि स्थल है। तानसेन समारोह स्थल से कुछ आगे जाते समय गुलाब की क्यारियों में से गुलाब की महक लेते हुए जब आगे बढ़ते है तब सुर सम्राट तानसेन का समाधि स्थल नजर आता है। अपने गुरु के पास चिरसाधना करते हुए समाधि स्थल तक पहुंचने के पहले ही कानों में मंगलवाद्य शहनाई के सुर पड़ते है। मधुर सुर सुबह के रागों के स्वरों में गुंथे हुए जैसे सुर सम्राट तानसेन की समाधि स्थल पर जाकर उन्हें याद कर रहे हो। ये मजीद खां थे जो शहनाई पर सुरांजलि अर्पित कर रहे थे। वे मगन थे और अपनी ओर से हाजरी दे रहे थे। इत्र की महक से संपूर्ण माहौल अलग ही खुशनुमा बन पड़ा था। सेवादार समाधि स्थल को करीने से सजा रहे थे और फिर इन सबमें ढोली बुवा का आगमन होता है। सिर पर मुकुटनुमा टोपी,अंगरख्खा पहने ढोली बुवा पहली नजÞर में आपको आकर्षित कर लेते है। ढोली बुवा के आते ही माहौल में जैसे पवित्रता घुल जाती है। ठीक सुर सम्राट तानसेन के समाधि स्थल के सामने साज मिलाये जाते है ढोली बुवा अपने छोटे से तानपुरे को मिलाते है। कुछ मलाएं पहनाई जाती है और हरिकथा आरंभ होती है।
1912 से चली आ रही हरिकथा मीलाद के पारंपरिक शुभारंभ कार्यक्रम का साक्षी बनना अपने आप में अलग अनुभव दे रहा था। सम्राट तानसेन के समाधि स्थल के पास ही कुर्सी पर राम दरबार का फोटो रखा गया अगरबत्ती जलाई गई और हरिकथा में ढोली बुवा ने संगीतमय आध्यात्मिक प्रवचन देते हुए ईश्वर और मनुष्य के रिश्तो को उजागर किया। उनके प्रवचन का सार था कि पर हित से बढ़कर कोई धर्म नहीं। अल्लाह और ईश्वर, राम और रहीम, कृष्ण और करीम, खुदा और देव सब एक हैं। हर मनुष्य में ईश्वर विद्यमान है। हम सब ईश्वर की सन्तान है तथा ईश्वर के अंश भी हैं। उन्होने सुर सम्राट तानसेन और बैजू बावरा के बीच किस प्रकार की बातचीत हुई और उनके किस्सो को भी बताया। उन्होंने कहा कि ईश्वर का नामस्मरण करें और संगीत के माध्यम से भी ईश्वर को पाया जा सकता है क्योंकि संगीत आनंद की अभिव्यक्ति है और आनंद की खोज वहीं कर सकता है जिसने अपनी सुर साधना की तपस्या की हो। यहां माहौल इतना सुंदर बन पड़ा की प्रभु श्री राम को याद किया जा रहा था सुरों की बात हो रही थी इबादत की बात हो रही थी। आपने कहा कि धर्म तो ईश्वर प्राप्ती के रास्ते है आपका धर्म कोई भी आपके भीतर ईश्वर को प्राप्त करने की लौ लगना चाहिए और यही बात संगीत पर भी लागू होती है। आपने यह भी कहा कि वर्तमान में जरा सा रियाज कर लोग कार्यक्रम देने चले जाते है। रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम भजन की भी प्रस्तुति दी गई।
ढोलीबुआ महाराज की हरिकथा के बाद मुस्लिम समुदाय से मौलाना इकबाल लश्कर कादिरी ने इस्लामी कायदे के अनुसार मिलाद शरीफ की तकरीर सुनाई। उन्होंने कहा सबसे बड़ी भक्ति मोहब्बत है। उनके द्वारा प्रस्तुत कलाम के बोल थे तू ही जलवानुमा है मैं नहीं हूँ। अंत में हजरत मौहम्मद गौस व तानसेन की मजार पर राज्य सरकार की ओर से सैयद जियाउल हसन सज्जादा नसीन जी द्वारा परंपरागत ढंग से चादरपोशी की गई। इससे पहले जनाब फरीद खानूनी, जनाब भोलू झनकार,जनाब आरिफ अली, जनाब अल्लाह रक्खा एवं उनके साथी कव्वाली गाते हुये चादर लेकर पहुंचे। कव्वाली के बोल थे ”खास दरबार-ए-मौहम्मद से ये आई चादर”।
तानसेन समाधि पर परंपरागत ढंग से आयोजित हुए इस कार्यक्रम में उस्ताद अलाउद्दीन खाँ कला एवं संगीत अकादमी के निदेशक श्री जयंत भिसे ने ढोली बुवा का स्वागत किया।