[birthdays class=””]हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ‘घराना’ शब्द ख़्याल की शैलीगत विशेषताओं का द्योतक है। प्राचीन भारतीय संगीत में शुद्धा, भिन्ना, बेसरा, गौणी और साधारणी जैसी विभिन्न गीतियों से और फिर प्रबंध और रूपकों में रागलप्ति और रूपकालप्ति के ज़रिये इस तरह की विशेषताओं का उल्लेख किया जाता रहा है। ध्रुपद की बानियाँ और ख़्याल के घराने इसी क्रम में उपजे। ग्वालियर घराने को ख़्याल के घरानों का उद्गम कहा जाता है। ग्वालियर, आगरा, किराना, जयपुर-अतरौली आदि घराने हमारे सांगीतिक उपवन में खिले फूलों की क्यारियों जैसे हैं जिनमें हर एक फूल की पहचान अपनी ख़ास ख़ुशबू से, अपने रूप-रंग से होती है। गायन के अलावा वाद्य-संगीत में भी अपनी निजी विशेषताओं वाले अलग अलग बाज हैं।आज जब हर घराने की ख़ूबसूरती ले कर अपनी गायकी सजाने की प्रथा चल गई है, घरानों की शुद्धता पर संकट दिखाई दे रहा है। ऐसे में हिंदुस्तानी संगीत के घरानों पर केंद्रित उत्सव इस बात का सुअवसर प्रदान करते हैं जहां संगीत-रसिकों से ले कर संगीत के शोधार्थियों एवं अध्येताओं तक को विविध घरानों की प्रामाणिक प्रस्तुतियाँ सुन पाने की सुविधा मिल सके।
इस दिशा में सतत प्रयासरत विष्णुपुर घराने के सितारवादक श्री सुव्रत डे की संस्था ‘स्वरांजलि’ का १६वाँ घराना समारोह गत दिनों राजधानी के हैबिटाट सेंटर में कई घरानो के गायन-वादन की प्रस्तुतियाँ ले कर आया। घराना हमारी गुरुशिष्य परंपरा का भी प्रतीक है इसलिए घराना समारोह में प्रतिवर्ष गुरु-सम्मान भी किया जाता है। उद्घाटन संध्या पर स्वरांजलि ने इस बार का गुरु सम्मान पंडित साजन मिश्र और तालयोगी पंडित सुरेश तलवकलकर को समर्पित किया।
हैबिटाट सेंटर के अमलतास सभागार में इस दोरोज़ा जलसे का शुभारंभ मुंबई से आई विदुषी तूलिका घोष के गायन से हुआ।संगीतज्ञों के परिवार में जन्मी तूलिका घोष विश्वविख्यात संगीतज्ञ और तबला विद्वान पंडित निखिल घोष की सुपुत्री एवं बांसुरी के पर्याय पंडित पन्ना लाल घोष की भतीजी हैं। उनके पितामह श्री अक्षय कुमार घोष सेनिया घराने के मशहूर सितारिया थे और प्रपितामह श्री हरकुमार घोष विख्यात ध्रुपदिया और पखावज-वादक थे। उनके अग्रज ध्रुव घोष सारंगी एवं नयन घोष सितार एवं तबला वादन के क्षेत्र में जाने-पहचाने नाम हैं। इस तरह की समृद्ध सांगीतिक विरासत के साथ ही साथ तूलिका को बचपन से ही सांगीतिक संस्कार घर में आने जाने वाले दिग्गजों से भी मिले जिनमे उस्ताद अहमद जान थिरकवा, पंडित ज्ञानप्रकाश घोष, उस्ताद इश्तियाक़ हुसैन ख़ान, लताफ़त हुसैन खा, अमीर खाँ विलायतखाँ, निखिल बैनैर्जी, बुद्धदेव दासगुप्त जैसे अनेक मूर्धन्य शामिल थे।
अपने पिता पंडित निखिल घोष से शुरुआती तालीम के बाद तूलिका को पंडित ज्ञान प्रकाश घोष, आगरा घराने के उस्ताद ख़ादिम हुसैन खाँ और यूनुस हुसैन खाँ से ख्याल-गायकी एवं बनारस घराने के पंडित हनुमान प्रसाद मिश्र से टप्पा, ठुमरी आदि के गायन का मार्गदर्शन मिला। बचपन से मिले संस्कारों में ग्वालियर, रामपुर-सहसवान, किराना, पटियाला आदि के प्रभाव ने भी इनकी गायकी को समृद्ध किया है यह तथ्य इस शाम इनकी प्रस्तुति में सहज उजागर था। अपने गायन का शुभारंभ तूलिका ने राग बिहाग से किया। विलंबित एकताल में “गोरी तेरो राज-सुहाग” की सिलसिलेवार बढ़त और बहलावे में बिहाग का पुराना रंग था जिसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग कम होता है। इसे सुनकर मुझे प्रसिद्ध रुद्रवीणा वादक उस्ताद असद अली खाँ की याद आ गई जो कहते थे “ बिहाग में दर-अस्ल तीव्र माध्यम है नहीं, बस उसकी खुशबू लगाई गई है, जब वह ख़ुशबू आती है, तब समझदार सुनकार कहते हैं “वाह, क्या मध्यम लगाया है!” तूलिका के बिहाग में भी उसी ख़ुशबू का एहसास बारहा होता रहा।
तूलिका के पास पुरानी बंदिशों का भी ख़ज़ाना है यह बात पहली ही बंदिश से स्पष्ट थी। बिहाग के बड़े ख़याल की यह बंदिश रामपुर के वज़ीर खाँ साहेब की थी जो तूलिका को पंडित ज्ञानप्रकाश घोष ने सिखाई थी। इसके बाद मध्य और द्रुत तीनताल में उन्होंने दो ख़ूबसूरत बंदिशें सुनाईं। ”लपक झपक पकड़ी मोरी बैयाँ” दिवंगत तारापद चक्रवर्ती रचित अनूठी बंदिश थी जो पाँचवीं मात्रा से शुरू होने के कारण द्रुत एकताल के छंद का सा भ्रम देती थी। इसके बाद “आली री अलबेली सुंदर नार” लोकप्रिय पारंपरिक बंदिश थी। तूलिका के बड़े ख़याल में अगर किराना वाला सुकून था तो छोटे ख़यालों में आगरा घराने वाली लय की लुकाछिपी! उन्हें अपने गुरु – पिता से कैसी कैसी नायाब चीज़ें मिलीं हैं इसका नमूना थी अगली रागमालिका, जिसके रचयिता थे कलामर्मज्ञ खैरागढ़ के राजा चक्रधर सिंह। राग बहार से शुरू होने वाली इस बंदिश में छह राग स्थायी और छह राग अंतरे में ऐसे पिरोए गये थे जो एक तरफ़ बंदिश का साहित्य रच रहे थे तो दूसरी और जिन रागों का बंदिश में उल्लेख होता उस राग-विशेष का माहौल भी! “रे बहार आई” मुखड़े में राग बहार से शुरू हो कर छायानट, बसंत, दरबारी, पूरिया, सुघराई, और अंतरे में बागेश्री, दुर्गा, श्री, तिलक-कामोद, देस और भूप से होती हुई बंदिश वापस बहार पर संपन्न हुई। अपने गायन का समापन तूलिका ने ठुमरी ख़माज़ – “छवि दिखला जा बाँके साँवरिया, ध्यान लग्यो मोहे तोर“ से किया जहां तूलिका के उर्वर बोल-बनाव के साथ ललित सिसोदिया के हारमोनियम ने और ठुमरी के अंतिम चरण में दुर्जय भौमिक के तबले की लग्गी ने भी समाँ बांध दिया।
उद्घाटन संध्या के दूसरे कलाकार थे पुणे से पधारे ख्यातनाम तबला वादक एवं तालयोगी पंडित सुरेश तलवलकर के सुयोग्य शिष्य, श्री रामदास पलसुले। मेकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री अर्जित करने के बाद और एक सुनिश्चित व्यवसायिक योग्यता के बावजूद रामदास ने तबलावादन को चुना यह जानकारी लोगों को आश्चर्य में डाल सकती है, लेकिन तभी तक जबतक कोई तबले पर थिरकती उनकी उँगलियों का जादू न देखे। और उस शाम भी यही हुआ। आमतौर पर बजाये जाने तीनताल की जगह अपनी मुख्य प्रस्तुति के लिए उन्होंने दस मात्रा वाले झपताल को चुना और आलापनुमाँ शुरुआती पेशकार से ले कर क़ायदे, पल्टे, रेले, गत, पारण, फ़र्द और चक्करदार फ़रमाइशी, कमाली तिहाइयों तक विविधता का अंत न था।हारमोनियम पर उनका साथ देने बैठे ललित सिसोदिया ने रामदास जी के तबला शुरू होने से पहले मिश्र शिवरंजनी में सुरीला समां बांधने की भरपूर कोशिश की लेकिन ‘मिश्र’ विशेषण का लाभ उठाने के चक्कर में वे काफ़ी दूर भटक गये।बहरहाल अंततः उन्हें घर का रास्ता मिला तो पलसुले जी के झपताल के लिए उन्होंने लहरा क़ायम किया। पर इस बात की तारीफ़ की जानी चाहिये कि पलसुले जैसे तबला-वादक के कठिन लयात्मक व्यत्यय की चुनौती के बावजूद वह पूरे समय लहरे की सही लय बदस्तूर क़ायम किए रहे।
राना समारोह की दूसरी शाम पंडित शौनक अभिषेकी के गायन और श्री सुव्रत डे के सितार वादन का कार्यक्रम था।
पंडित जितेंद्र अभिषेकी के सुपुत्र एवं शिष्य शौनक ने लोगों को सुखद आश्चर्य में डाल दिया अपने सुपुत्र एवं शिष्य अभेद अभिषेकी को गायन में संगति के लिए प्रस्तुत करके।शौनक अभिषेकी ने अपने गायन की स्वास्तिमयी शुरुआत की राग सरस्वती से, जहां मध्य-विलंबित रूपक ताल में “रैन की बात” और तीन -ताल में रचित “सजन बिन कैसे भई” दोनों ही बंदिशों के रचयिता पंडित जितेंद्र अभिषेकी थे। इस तरह संगीत रसिक एक साथ तीन पीढ़ियों के प्रतिनिधित्व के साक्षी बने।
मुख्य राग के लिए ‘सरस्वती’ के चयन को सरस्वती वंदना की तरह मान लेने वाले सुधी श्रोताओं को भी शौनक ने मुख्य राग वाली परितृप्ति दी। सरस्वती जैसे सीमित संभावना वाले राग का एक बड़े राग जैसा सम्यक् निर्वाह चुनौती भरा था, लेकिन शौनक ने कर्नाटक पद्धति वाले इस राग को भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के किसी बड़े राग की तरह बरता, बिना किसी दुहराव वाले आभास के! अभेद ने उनका पहले कुछ संकोच से और फिर पूरे आत्मविश्वास से साथ दिया, छोटे ख़याल के तान-मय मुखड़े तक में।
अगली प्रस्तुति के लिए भी शौनक ने सोहिनी-पंचम जैसे विरल राग को चुना। राग सोहिनी की टीसभरी शुरुआत के बाद बंदिश करवट बदल कर पंचम पर आ जाती “सखी मोरे प्रीतम प्यारे हो/ जाए कहो बिरहा सताए”! आश्चर्य नहीं कि यह बंदिश ‘प्राणपिया’ उपनाम वाले आगरा घराने के मशहूर उस्ताद विलायत हुसैन खाँ साहेब की रचना थी।
शौनक की गायकी में आगरा और जयपुर दोनों ही घरानों के रंग दिखे। रागों के बर्ताव में जयपुर की झलक दिखी तो बंदिश की अदायगी से लेकर तानों तक में आगरे वाला लय से खिलवाड़ और गणित के दांव-पेंच वाली तिहाइयों ने लोगों को आगरे वाला मनमोहक रोमांच दिया। तबले पर दुर्जय भौमिक और हारमोनियम पर सुमित मिश्र ने उनका बेहतरीन साथ दिया।
घराना समारोह के अंतिम कलाकार थे विष्णुपुर घराने के सितारवादक श्री सुव्रतो डे। स्वरांजलि के संस्थापक सुव्रतो ने पूरे आयोजन की समुचित व्यवस्था का भार सम्हालते हुए भी सितार पर अपने घराने की प्रामाणिक प्रस्तुति दी। पंडित मणिलाल नाग के सुयोग्य शिष्य सुव्रतो ने अपने गुरु की शैली के गांभीर्य और मिठास का मणि-कांचन संयोग अपने सितार में वर्षों की अनथक साधना से उतारा है।
इस शाम उन्होंने राग गोरख-कल्याण की सुरीली अवतारणा की। चैन से की गई आलाप में मंद्र सप्तक के षड्ज से लेकर मध्य और तार तक के विस्तार में ध्रुपद अंग का गांभीर्य दिखाई दिया। आलाप के बाद जोड़ में लय क़ायम करके गोरख कल्याण के माधुर्य को उन्होंने संजीदगी से उजागर किया।झाले का दुहराव न हो इसलिए उसे अंत के लिए बचा कर उन्होंने तीनताल में विलंबित, ग्यारह मात्रा के अष्ट-मंगल ताल में मध्य लय की तथा द्रुत तीनताल में द्रुत गत बजाकर अंततः झाले के चरमोत्कर्ष पर अपनी सुनियोजित प्रस्तुति संपन्न की। तबले पर श्री प्रदीप सरकार ने उनकी सर्वथा अनुकूल संगति की।