संसार का एक नियम है-एक में दो, दो में एक।
आप आश्चर्य करेंगे कि यह कैसा नियम, इस बारे में तो कुछ नहीं पता। दरअसल इस बारे में हम सब बहुत अच्छे से वाकिफ़ होते हैं बस इस बात से अनजान होते हैं कि हम यह जानते हैं। जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं-चित और पट, या फिर दिन-रात, श्वेत-श्याम, सुख-दुख, लाभ-हानि… जीवन के किसी भी बिंदु को उठा लीजिए वहाँ यदि कहीं प्रारंभ है तो अंत भी है। मतलब एक में ही दो हैं, मतलब कुछ शुरू हुआ है तो उसी में उसका विस्तार छिपा है और शुरुआत-समापन ये दो दरअसल दो न होकर एक ही हैं।
इतना क्लिष्ट दर्शन समझ पाना बहुत मुश्किल है लेकिन नृत्य से किसी भी रूप में जुड़े व्यक्ति के लिए यह समझना उतना मुश्किल नहीं है। नाट्य और नृत्त (अंगों का लयबद्ध परिचालन) इन दो कलाओं के मिलाने से जिस कला का जन्म हुआ वही तो है नृत्य। नृत्य की छंद रचना के लिए तीन वर्ण निर्धारित हैं- ‘ता थे ई’। ‘ता थे ई’ करना यानी नृत्य करना। कोई बच्चा भी जब जिद पर अड़ जाता है, पैर पटकने लगता है और अपनी बात मनवाना चाहता है तो हम कहते हैं क्या ‘ता थेई, ताथेई’ लगा रखा है।
चूँकि नृत्य की प्रथम क्रिया है पैर चलाना। कथक नृत्य में समस्त बोल-तोड़ों की रचना ततकार के इन्हीं तीन वर्णों ‘ता थे ई’ से मुख्यत: की गई है। पं. राजाराम द्विवेदी ने नृत्य के इन ततकारिक वर्णों की व्याख्या की है कि – त माने तन (शरीर), थ माने थल (पृथ्वी) और ई माने ईश्वर। इस प्रकार इन तीनों का संयुक्त अर्थ हुआ ‘तन से थल पर नृत्य आदि जो भी कर्म करो वह ईश्वर के लिए करो’।
भारतीय कला का मूल तत्व अध्यात्म है। द्वारिका महात्म्य में लिखा है कि ‘जो व्यक्ति अत्यंत भक्ति के साथ भावपूर्ण नृत्य करता है, उसके पिछले सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं ।’ नृत्य उपासना की वस्तु है। नृत्य के साथ जो चीज़ सबसे पहले चलकर आती है वह है – ताल। ताल शब्द की व्याख्या विद्वानों ने जो भी दी हो लेकिन मन-मस्तिष्क को छूती है तो एक परिकल्पना कि शिवजी ने त (तांडव) का और पार्वती ने ल (लास्य) का स्मरण किया.. इस प्रकार शिव और शक्ति के समायोग से ताल बना। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दें कि शिवजी का तांडव मतलब रौद्र रुप भर नहीं है, तांडव के प्रकारों में आनंद तांडव भी है और संध्या तांडव भी। ऐसा नृत्य जो पुरुषों के करने योग्य हो उसे तांडव की श्रेणी में रखा गया और जो सुकोमल अंग संचालन से युक्त हो उसे लास्य की श्रेणी में रखा गया। यहाँ भी पुरुष और प्रकृति कहें तो एक में दो हैं, जैसे स्त्री और पुरुष और कहें तो दो में एक है जैसे अर्धनारीश्वर।
हम नृत्य की बात कर रहे हैं तो वह भी एक ही नृत्य दो रूपों में बँटा हुआ है-भारतीय और पाश्चात्य। यदि केवल भारतीय की ही बात करें तो वह भी मार्गी और देसी या कहें शास्त्रीय और लोकनृत्य में विभक्त है। एक ही है दो में। भारत के प्राचीन परंपरागत शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यम का सर्वप्रथम स्थान है। यह अपने आप में विशिष्ट और संपूर्ण नृत्य कहा जाता है। यह मुख्य रूप से एकल नृत्य है। एकल नृत्य होने से भरतनाट्यम में नृत्त और अभिनय दोनों दिखता है, एक ही नर्तकी द्वारा। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में लिखा है कि नृत्य को जो लोग पेशा बनाते हैं उन्हें प्रयत्नपूर्वक मना करना चाहिए। शायद यही वजह है कि भरतनाट्यम के शिक्षक नत्तुवन प्राचीन काल में अपनी शिष्याओं को नि:शुल्क शिक्षा देते थे। भारतीय पारंपरिक नृत्यों में देखें तो ‘सबमें एक’ के दर्शन बड़ी सरलता से किए जा सकते हैं। बचपन से नृत्य की किसी भी विधा को सीखने वाला जानने लगता है कि गुरु और शिष्य कहने को दो अलग व्यक्ति है लेकिन गुरू और शिष्य का विच्छेद कभी नहीं होता…पूर्ण समर्पण का भाव यहीं से आता है। अब फिर से देखें तो ‘गु’ मतलब अज्ञानता, अंधकार,मृत्यु, संकोचन, संकीर्णता जबकि ‘रू’ का अर्थ है जो उसे रुद्ध करता है मतलब जो अज्ञानता को दूर कर ज्ञान का विवेक लाता है वह है गुरू। गुरू हमारे भीतर ही बसा होता है जो हमारे दोष-त्रुटियों को झेलता है… देह रूप में हम अपने गुरू के सामने नतमस्तक होते हैं और विनती करते हैं कि हमारे दोष हर लें।
इस समबोध का भाव कि ‘मैं’ और ‘कोई और’.. ‘मैं’ और ‘तुम’, ‘मैं’ और ‘वह’ अलग नहीं, एक ही है। कुचिपुड़ी नृत्य में तो पुरुष और स्त्री सभी पात्रों को पुरुष ही अभिनीत करते हैं। तब वे पुरुष से जुड़े वीर, वीभत्स, रौद्र, अद्भुत आदि रसों से परिचित होते ही है साथ ही श्रृंगार, करुण आदि स्त्रियोचित रसों का भी परिचय पाते हैं। यक्षगान के पात्र मंजे हुए नर्तक होते हैं। यक्षगान नृत्य-नाट्य में तो बाल-गोपाल है जो कृष्ण-बलराम है। मतलब कृष्ण है तो बलराम होंगे ही, पुन: एक के ही दो या दो में एक का भाव। बाल-गोपालों की प्रस्तुति के बाद दो स्त्री वेश प्रवेश करते हैं। ऐसा माना जाता है दोनों स्त्री वेश कृष्ण की पत्नियाँ सत्यभामा और रुक्मिणी ही हैं। फिर से वही एक की ही दो भार्या… समभाव और सम होते हुए भी दोनों का अलग गुण-धर्म। जैसे बोधसत्ता या मैं-तत्व का एकतरफ़ा नाटकीय क्रीड़ाभिनय चल रहा हो। दोनों एक ही सत्ता के द्विविध प्रकाश। कथाकली या कथकली नृत्य में अहार्य अभिनय अर्थात् रूप सज्जा या मेकअप को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। कथाकली में भी केवल नर्तक अपनी कला दिखाते हैं। इस नृत्य के तीस प्रकार हैं। यह जितना रोमाचंकारी नृत्य-नाट्य प्रकार है उतना ही यह ‘सबमें एक’ के सूत्र को भी लेकर चलता है। इसे पहले कृष्णा-अत्तम या कृष्ण लीला कहा जाता है। कृष्ण लीला से जुड़ी है रास लीला। रासलीला तो रास और लीला से मिलकर बना है जो सीधे-सीधे यही बताता है कि तत्वत: जो दैव है, वही है पुरुषकार और जो पुरुषकार है वही है दैव। सूत्र वही- एक में दो, दो में एक।
मणिपुर का सबसे प्रधान और लोकमान्य नृत्य रासलीला है। इसमें कृष्ण का अभिनय 10-12 वर्ष का बालक करता है, राधा तथा गोपियों का अभिनय प्रवीण नर्तकियाँ करती हैं। मणिपुर की धरती ही नृत्यमय है। अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मणिपुर निवासी आज तक नृत्य करते चले आ रहे हैं। उनका प्राचीनतम नृत्य लाई-हरोबा है जो माना जाता है कि शिव-पार्वती द्वारा यहाँ सर्वप्रथम किया गया था। मतलब उसी अखंड बोध का सूत्र – एक में एक, एक का एक, एक से एक, एक के लिए एक, एक के द्वारा एक, एक के साथ एक, एक के प्रति एक, एक पर एक, उसके भी पार एक और परात्परम् एक।
ब्रज की रासलीला राधा-कृष्ण और गोपियों के विविध नृत्य रूपों से युक्त नित्य रास है। यहाँ भी कृष्ण, राधा और सखियों का स्वरूप 8 से 14 वर्ष तक के बालकों को दिया जाता है। बालक ही कृष्ण है, गोप है और वे ही राधा और गोपिकाएँ भी। क्या उन्हें बड़े होने पर अलग से बताने की ज़रूरत कभी रहती होगी कि हम सबमें एक ही तत्व समान रूप से सदा के लिए, बिना किसी बदलाव के अखंड रूप से बह रहा है। रास के नृत्त भाग में ‘तत् तत् ता थेई’ की तिहाई, ‘तिकट तिकट धिल्लांगधिक तक तौ दीम’ का परमेलु दिखता है। माना भी जाता है कि रासलीला के नृत्य भाग की संरचना वल्लभ नामक एक कथक नर्तक ने की थी।
कथक नृत्य का पूरा नाम तो नटवरी नृत्य भी माना जाता है। कथक नृत्य अपने प्रस्तुतीकरण में सर्वाधिक स्वतंत्र है। एक ही नृत्य उसके दो भाग होते हैं एक नृत्त पक्ष और दूसरा अभिनय पक्ष। कथक नृत्य में ताल और लय के साथ पैर चलाने की क्रिया ततकार है। ताल और लय, फिर दो.. दो ही एक में। अभिनय पक्ष के गत भाव में अकेला नर्तक विभिन्न पात्रों का अभिनय करते हुए एक पूरी कहानी प्रस्तुत करता है। पारंपरिक ठाट (आकार) में नटवरी के कई हस्तक (हाथ की मुद्राएँ) दिखते हैं जो एक ही व्यक्ति के दो हाथों का प्रयोग है। प्रचलित ठाट में दायाँ हाथ सिर के ऊपर और बायाँ हाथ सामने या बाजू में खोलकर प्रदर्शित किया जाता है। कहते हैं कि ऊपर उठा दायाँ हाथ कृष्ण का मुकुट है और बायाँ हाथ जो खुला है उसमें राधारानी समाहित है। एक ही नर्तक में एक ही समय दो समाहित होना इस बात को रेखांकित कर देता है कि सबमें है एक वही.. निरंतर…
नटवर भंग कहे जाने वाले त्रिभंग की अनूठी छटा जिस अन्य नृत्य में दिखती है वह है ओड़िसी। यह भी भरतनाट्य या कथक की तरह एकल नृत्य ही है। जिस प्रकार दक्षिण में देवदासियों द्वारा भरतनाट्यम विकसित हुआ था वैसे ही जगन्नाथ मंदिर की देवदासियों द्वारा जिन्हें महारी कहा जाता था यह नृत्य प्रारंभ हुआ। स्त्रीवेश में नृत्य करने वाले लड़के गोतिपुवा कहलाते थे। स्त्रीवेश में लड़के… विभेद का अनुपम उदाहरण। जयदेव की दशावतार स्तुति ओड़िसी का लोकप्रिय पद है जिसमें एक नर्तक ईश्वर के दस अवतारों को हस्ताभिनय और नयन भाव से साकार कर देता है। एक ही होता है मंच पर दस होने का प्रभाव जगाता हुआ।
भरतनाट्यम में तिल्लाना, कथक में तराना और ओड़िसी में तर्जन से समापन होता है जब स्वर और ताल द्रुत से द्रुततर की ओर जाते हुए चरमोत्कर्ष पर पहुँचते हैं। संगीत में व्यतीतमान समय की गति को लय कहते हैं। नृत्य विलंबित, मध्य और द्रुत लय से गुज़रता है.. अध्यात्म में कुछ भी समाप्त नहीं होता.. लय पाता है.. एक ही लय जो विलंबित में है और जो द्रुत में विलय है… दो में एक… एक में दो!
3 thoughts on “आखिर होता क्या है ‘ता थे ई’ करना ?”
बडे सहज भाव से विभिन्न भारतीय नृत्य विधाओं से परिचय कराया आपने। आभार।
बढ़िया आलेख, धन्यवाद आपका.
‘क्या होता है ता थे ई’ बढ़िया लेख ।आपने अपने एक ही लेख में नृत्य के विभिन्न आयामों और भारतीय शास्त्रीय नृत्यों को बड़ी सरलता से प्रस्तुत कर दिया। कोई नौसिखिया भी आसानी से इस लेख को पढ़कर काफी जानकार बन सकता है। हार्दिक शुभकामनाएं 🏵️🏵️