‘मुरली की धुन सुन आई राधे’….यह उस कवित्त के बोल है, जिसे कथक सीखने के प्रारंभिक वर्षों में सीखा था…कवित्त अर्थात् कविता के बोलों को ताल में निबद्ध करना।
पर कविता पर नृत्य करना इससे भिन्न है, यह इन वर्षों में जाना…कि कविता को ताल में नहीं बाँधना..उसे उसकी लय में उसी तरह से, जैसे की वह है, रहने देना है।
सीखने के शुरुआती दौर में सीखे गए पद, वंदना आदि के साथ लहरा और तबला भी बजता है लेकिन जब कविता पर नृत्य हो तो केवल एक तानपुरे की सिम्फ़नी साथ होती है। विशिष्ट शब्दों को दिखाने के लिए विशिष्ट मुद्राओं का प्रयोग करना और उसे दिखाना यह तो सीखा होता है…लेकिन साल बीतते हैं और उन शब्दों के नए अर्थ समझ आने लगते हैं। शास्त्रीय नृत्य के प्रारंभिक वर्षों में ही गुरु वंदना, सरस्वती वंदना, गणेश वंदना आदि को साकार करना सीखाया जाता है। फ़िर सुर-तुलसी के पद, मीरा के भजन और कबीर की साखी भी इसका हिस्सा बनने लगते हैं। नृत्य के ताल पक्ष के बाद जब भी भाव पक्ष को दिखाने की बारी आती है तो इन पदों का सहारा लिया जाता है। कथक में ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल-नज़्म के साथ आधुनिक कविता की भी प्रस्तुति दी जाने लगी है।
गुरु से सीखते हुए कला की तकनीक और उसके शास्त्र-शुद्ध पक्ष को सीखते चले जाते हैं लेकिन जब उस कला, ख़ासकर नृत्य कला को आत्मसात करते हैं तो आंगिक-वाचिक…अहार्य सारे पक्षों के साथ स्वयं का मंथन भी अंगीकार होने लगता है। कवि संजय भारद्वाज की लंबी कविता ‘भाषा कभी बाँधती नहीं’ पर जितनी बार कथक प्रस्तुत किया, उतनी बार उस कविता के नए मायने खुले। दरअसल इसी नाम से एक पूरी काव्यमय प्रस्तुति है जिसमें हिंदी, मराठी, उर्दू, भोजपुरी, बंगाली, गुजराती, सिंधी-कश्मीरी आदि भाषाओं की मूल रचनाएँ तदुपरांत उनका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है। इस आयोजन की शीर्षक कविता पर कथक करने का मानस, फिर चिंतन-मनन हुआ और अब तक पुणे में इसकी कई प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं।
एक कवि के रूप में अपनी कविता रखना और एक कवि के रूप में किसी दूसरे कवि की कविता पर साक्षी भाव से विचार करना पूरी तरह अलग बात होती है। कविता की दो पंक्तियों के बीच के रिक्त स्थान को किस तरह से भरना है, शब्द जहाँ ख़त्म हुआ वहाँ कविता ख़त्म नहीं होती..मतलब वहाँ पूर्णविराम नहीं दिखना चाहिए.. नृत्य के माध्यम से अनवरतता आनी चाहिए और बीच के खालीपन को मुद्राओं, हाव-भाव, भंगिमाओं या पोस्चर से पूरा करना बहुत ज़रूरी होता है।
कविता में एक शब्द आता है और उसका एक आयाम कवि रखता है, दूसरा आयाम श्रोता सुनता है लेकिन नृत्य उसे तीसरा आयाम देता है जिसका दर्शकों तक कई आयामों में अर्थ खुलता है। कोशिश की गई कि वह शब्द जितनी बार आएगा उसके अर्थ उतनी बार विस्तार लिए होने चाहिए और कविता को वृहत करते रखना चाहिए। सात मिनट की कविता में सात क्षण भी ऐसे नहीं होने चाहिए जो खाली दिखे…हर क्षण को सतरंगी विविधता से भरने का प्रयास करना इस प्रक्रिया का मुख्य हिस्सा था।
कविता प्रारंभ होती है ‘कालचक्र कब आरंभ हुआ कोई नहीं जानता’…इसका पहला ‘चक्र’ तो सादे चलते हुए हस्तक (हाथों की स्थिति) से बताया..फिर आया ‘कालचक्र कब तक चलेगा कोई नहीं जानता’ तो इस बार ‘चक्र’ को एक बड़े पहिए के रूप में दिखाया। इसके बाद कविता में जितनी बार ‘चक्र’ आया उतनी बार उसे अलग-अलग तरीके से दिखाते रहने की कोशिश अपनी ओर से की।
आगे पंक्ति आई- ‘चक्र घूमा, ब्रह्मांड उगा’…तो पहला ‘चक्र’ विष्णु के सुदर्शन चक्र से दिखाया क्योंकि पौराणिक आख्यानों में जिक्र है कि विष्णु ही जगत को चलाते हैं… फिर ‘चक्र घूमा’ आया तो हाथों को फैलाकर एक चक्कर लिया… फिर दो बार ‘चक्र घूमा’ दिखाने के लिए तो कमर से झुकते हुए मेघ दिखाने की वलयाकार भंगिमा की। इसके बाद लगातार तीन बार ‘चक्र घूमा’ आया, जिसे दिखाने के लिए अर्ध चक्राकार तीन मूवमेंट किए। एक पद्यांश पूरा होने के बाद एक बार फ़िर तीन बार ‘चक्र घूमा’ आता है, और उसके बाद वह उत्सव से जुड़ता है तो बांसुरी को हाथ में लेकर घूमाते हुए दिखाया, बांसुरी को उछाला-बजाया और उत्सव हुआ पर मृदंग की थाप दी। बांसुरी और मृदंग का बजना उत्सव की ध्वनि को सारभूत करता है उसी तरह बांसुरी से कृष्ण को दिखाया जो गीता में कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होगी, मैं अवतरित होता रहूँगा…मतलब कृष्ण का पुनरपि अवतरण एक चक्र से दूसरे और तीसरे अर्थात् युगों के चक्राकार चलते रहने को दिखा गया।
उसके बाद जब तीन बार ‘चक्र घूमा’ आया तो मंच की परिक्रमा एक परिधि में करते हुए सूची मुद्रा का प्रयोग कर चक्र का घूमना दिखाया। अंत में ‘चक्र घूमा’ आने पर तीन द्रुत चक्री (तेजी से घूमना) लिए और तिहाई (किसी भी टुकड़े की समाप्ति दिखाती रचना) ले ली।
इस तरह एक कविता जो केवल शब्दों में होती तो उतनी ही दिखती जितने शब्द उसके अर्थ देते लेकिन जब त्रिआयामी हुई कथन-श्रवण-दर्शन तो उसके कई अर्थ खुले…
हर प्रस्तुति के साथ उस कविता पर और अधिक विचार हुआ और केवल एक शब्द चक्र कितने तरीकों से दिखाया जा सकता है, कौन-कौन-सा चक्र हो सकता है, जैसे अमृत मंथन होता रहा।
2 thoughts on “‘चक्र घूमा’.. हर बार नए अर्थों के साथ”
कविता के शब्द जब अंग में संचरित होकर भाव-भंगिमाओं के माध्यम से प्रस्तुत होते हैं तो एक चक्र पूरा होता है जो स्वरांगी कहलाता है। कथक नृत्यांगना के रूप में स्वरांगी साने ने इस कविता की संभावनाओं का विस्तार किया है। चूँकि कोई भी विस्तार अंतिम नहीं होता, असीम संभावनाएँ अभी भी बाट जोह रही हैं। प्रयास होगा कि आने वाले मंचनों में शब्द, स्वर, भाव और पद-लालित्य का यह सदानीरा संगम और सार्थक प्रवाह के साथ दर्शकों तक पहुँचे।
कविता पर कथक अभिनव प्रयोग है । उसके बारे में लिखा भी बढ़िया है । एकदम सरल भाषा में भावाभिव्यक्ति ने मुझ जैसी साधारण पाठिका को भी रससिक्त कर दिया ।