हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, हर घटना के साथ सकारात्मकता और नकारात्मकता जुड़ी होती है यह आप पर निर्भर करता है कि आप किसी घटना को किस तरह देखते हैं, आधा गिलास भरा हुआ या आधा गिलास खाली, यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। इस तरह की तमाम कहावतों, उदाहरणों को सही अर्थों में समझना है तो आपको बड़वाह के संजय महाजन से मिलना चाहिए। जब 22 मार्च 2020 को पूरे देश में लॉक डाउन लग गया था और हर कोई अपने घरों में कैद हो गया था तब छोटे से कस्बे के इस कलाकार ने अपनी सृजनात्मकता को ‘चरैवेति चरैवेति’ कहा। हम कहते हैं कि हम ईश्वर के हाथ के गुड्डा-गुड़िया हैं, और जैसे मानव प्रजाति ही ध्वस्त हो जाएगी यह ख़तरा मंडराने लगा था तब संजय महाजन ने अपने हाथों से गुड़ियों का एक नया संसार रच दिया।
न केवल संसार रचा बल्कि उस संसार को नई उमंगों और उत्साह-ऊर्जा से भी भर दिया। महज़ इन दो सालों में उनकी 135 गुड़ियाओं ने मध्यप्रदेश जनजाति संग्रहालय में अपने लिए स्थान बना लिया है। खजुराहो शिल्प ग्राम में उनकी विविध गुड़ियाएँ सज चुकी हैं। भारत के अलावा दुबई, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, फ्रांस, स्विट्जरलैंड में भी उनकी गुड़ियाएँ अपने परचम लहरा रही हैं। इन गुड़ियों में शास्त्रीय नृत्यों कथक, भरतनाट्यम, ओड़ीसी, मोहिनी अट्टम, कथकली, कुचिपुड़ी और मणिपुरी का प्रतिनिधित्व करती गुड़ियाएँ हैं तो विभिन्न राज्यों के लोकनृत्य करती जैसे भांगड़ा (पंजाब), लावणी (महाराष्ट्र),डांडिया रास (गुजरात), कालबेलिया सपेरा (राजस्थान), पंडवानी (छत्तीसगढ़), काठी-गणगौर रथ, बधाई, मटकी, गुदमबाजा (मध्यप्रदेश) और ढोलुकुनीता (कर्नाटक) गुड़ियाएँ भी। अब तक 17 राज्यों के 30 पहलुओं को दिखाती और 70 चरित्रों को निभाती गुड़ियाएँ वे बना चुके हैं।
लोगों को आपदा से उबरने में महीनों-सालों लग गए लेकिन संजय जी ने दूसरे ही दिन मतलब उसी 23 मार्च को पुराने संदूक खोले, घर पर जरी-गोटा, लैस-मोती और जरदोजी के कपड़े-कतरन जो भी रखे थे उनसे काम शुरू कर दिया। आपके ज़ेहन में यह सवाल आ सकता है कि किसी के घर में इस तरह का इतना और कितना सामान कैसे हो सकता है। दरअसल संजय महाजन आज गुड़ियों के सर्जक के रूप में देश-विदेश में जाने जा रहे हैं लेकिन अभी दो साल पहले तक उनकी पहली पहचान कथक और लोक नर्तक के रूप में थी। वे नई पीढ़ी को भी नृत्य सिखाते हैं और पूरे देश में अपनी कथक प्रस्तुतियों के लिए जाने जाते हैं सो उनके पास नृत्य के परिधानों में से बचे हुए कई कपड़े और कई सामान थे। ‘गुदड़ी का लाल’ जैसी कोई कहानी शायद उन्होंने भी बचपन में पढ़ी होगी जो वे गुदड़ी से गुड़ियाएँ बनाने लगे।
इस बारे में वे बताते हैं- मेरा ननिहाल इंदौर में है। आज मैं 51 साल का हूँ और हमारी पीढ़ी के लिए बचपन में गर्मी की छुट्टियाँ मतलब नाना-मामा के यहाँ जाने के दिन हुआ करते थे। इंदौर में आड़ा बाज़ार नामक इलाका आज भी रंग-बिरंगी चूड़ियों-परांदों के लिए जाना जाता है। वहाँ माँ के साथ मैं भी जाया करता था। आठवीं-नौंवी कक्षा की बात होगी, वहीं किसी दुकान में एक गुड़िया देख ली, वह इतनी भा गई कि उसे खरीदना चाहा। दुकानदार ने कहा कि वो गुड़िया नहीं बेचता, उसे बनाने का सामान बेचता है। मैं माँ से जिद कर बैठा कि मुझे गुड़िया का सामान खरीद गुड़िया बनानी है। उस ज़माने में बच्चों की हर जिद तुरंत मान लेने का रिवाज़ नहीं था, लेकिन किसी तरह माँ मान गई। गुड़िया का चेहरा सात रुपए में था और पूरा मैटीरियल 15 रुपए में आया था। तब मोबाइल/ यू-ट्यूब भी नहीं थे कि झट फ़ोटो खींच लिया या पट देख लिया कैसे बनाई जाती है, दुकान में जो देखा था उसी को याद करते हुए जैसे बना पाया, कुछ अनगढ़ सी गुड़िया बना ली लेकिन उस खुशी को कभी नहीं भूल पाया था। हमारे घर में 15-20 साल पहले बनाई एक गुड़िया आज तक रखी हुई है। जब लॉक डाउन लगा तो जैसे बचपन और बचपन की वो खुशी फिर याद हो आई और फिर एक बार उस हुनर को आज़माना शुरू किया। मध्यप्रदेश का होने से शुरुआत अपने ही प्रदेश के चार खंडों- मालवा, निमाड़, बुंदेलखंड और बघेलखंड की चार गुड़ियाओं को बनाकर की। सबसे पहले चूँकि मैं निमाड़ से आता हूँ तो निमाड़ की बनाई फिर ननिहाल मालवा का होने से दूसरी गुड़िया मालवा क्षेत्र की बनाई।
काठ से जो बनी होती है वह कठपुतली होती है। संजय जी की गुड़ियाएँ लोहे के 12-14 गेज के पतले तार से बनी हैं। तार के ढाँचे को चिंदियों से लपेटते हैं फिर उस पर लाई लगाकर कड़ी धूप में सुखाते हैं। ढाँचा कड़ा हो जाने के बाद उस पर क्ले या व्हाइट सीमेंट की एकदम पतली परत अंगुली से लगाई जाती है ताकि उसमें चमक या ग्लेज़ आ जाए। उसके बाद उन्हें रँग दिया जाता है। अंत में पीओपी से स्वरूप के अनुसार चेहरा बनता है और चेहरे पर ज़ेल लगता है, बाल आते हैं और जैसा चरित्र गढ़ना हो उस हिसाब से उसकी वेशभूषा की जाती है। मणिपुर डॉल को बनाने के लिए आप इंटरनेट पर खोजेंगे तो आपको लाल ब्लाउज़ पहने चित्र दिख जाएगा लेकिन वह ब्लाउज़ कॉटन का है, सैटिन का या मखमल का यह कैसे जानेंगे तो उसके लिए नृत्य के दौरान पूरे देश के दौरे काम आए। मणिपुरी नर्तकों को जानने का अवसर मिलने से पता था कि वहाँ मखमल का कपड़ा इस्तेमाल किया जाता है। मखमल मिलना मुश्किल नहीं है सो गुड़िया के लिए भी मखमल का ही प्रयोग करते हैं। इसी तरह असम का बिहू नृत्य भी उस गुड़िया को बनाते हुए साकार हो गया। पहले-पहल नैन-नक्श बनाने में काफी दिक्कत आई लेकिन धीरे-धीरे उसमें भी हाथ सध गया। नृत्य की पृष्ठभूमि होने से नर्तन करती गुड़ियाओं की भाव-भंगिमाओं को पकड़ना भी आसान रहा। सब कहते हैं मेरी गुड़ियाएँ सजीव लगती हैं, इसकी वजह उनकी आँखें हैं। उन आँखों में जो भाव दिखा पाता हूँ वह नृत्य की देन है।
संजय जी ने कथक के जयपुर घराने की शिक्षा उज्जैन के राजकुमुद ठोलिया जी से तथा रायगढ़ घराने की शिक्षा इंदौर की डॉ. सुचित्रा हरमलकर जी से ली हैं। लॉक डाउन के दौरान उनकी नृत्यशाला के तकरीबन 15 छात्रों को भी उन्होंने गुड़िया बनाना सिखाया, उन्हें मानधन भी दिया। वे बताते हैं कि शौकिया तौर पर ही इसे शुरू किया था और जैसा कि आम होता है वैसे ही सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगा था कि आज ये बनाई, कल ये। लोगों को पसंद आने लगी। बड़वाह की ही एक छोटी लड़की जिद करने लगी कि उसे गुड़िया चाहिए, लॉकडाउन था, दुकानें बंद थीं तो उसके पिता अपनी बेटी को हमारे यहाँ ले आए। तब तक हमारे घर पर 25-30 गुड़ियाएँ बन चुकी थीं। पिता-पुत्री को एक गुड़िया बहुत पसंद आ गई। हमने बताया भी कि यह खेलने वाली गुड़िया नहीं है लेकिन बेटी जिद करने लगी। तब तक हमें पता नहीं थी कि क्या कीमत लगाई जाए। राधा-कृष्ण की युगल गुड़िया 1100 रुपए में दी और उनके घर में हमारी गुड़ियाएँ अपनी जगह बनाती चली गईं। मध्यप्रदेश शासन के कुछ अधिकारियों को पता चला तो उनके दो-तीन अधिकारी घर पर आए, उन्होंने गुड़ियाएँ देखीं और इस तरह बैगा, भील, भिलाला, गोंड, कोरकू आदि जनजातियों की गुड़ियाएँ मध्यप्रदेश जनजाति संग्रहालय में पहुँच गईं। दिल्ली के ही दिल्ली पब्लिक स्कूल ने वर्कशॉप करवाया। लोगों को जैसे-जैसे पता चलने लगा लोग उपहार स्वरूप भी इन गुड़ियों को देने लगे। अब तो हमारे यहाँ वेटिंग में गुड़ियों के ऑर्डर पर काम होता है। पिछले साल सात दिन के खजुराहो फेस्टिवल में हमारी गुड़ियाएँ थीं, लोकरंग समारोह में पाँच दिन के लिए हमें बुलाया गया था, अभी 25 से 31 दिसंबर 2021 में मालवा उत्सव में हम थे। हनुमंतिया टापू पर जल महोत्सव में 1 से 5 जनवरी 2022 तक हम हैं। वे कहते हैं, मैं चमत्कृत हूँ इतनी जल्दी इतना सब कैसे हो गया। वास्तव में उनकी हँसती-मुस्कुराती गुड़ियाएँ अपने लिए रचनाधर्मिता का विस्मित करता संसार बुन रही हैं।
संजय महाजन द्वारा बनायीं गयी अन्य कलाकृतियों को उनके फेसबुक एल्बम में देखा जा सकता है। उनका संपर्क क्र. 98265 11530 है।