भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में अपनी प्रस्तुतीकरण की स्वतंत्रता के लिए कथक नृत्य जाना जाता है। वैसे तो कथक नृत्य की लगभग तीन हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा है लेकिन आज कथक नृत्य का जो स्वरूप दिखता है वह विगत दो-तीन सौ वर्षों में विकसित हुआ है। लगभग 900 वर्षों के इस्लामिक शासन काल का भारतीय सभ्यता, संस्कृति पर जो प्रभाव पड़ा उसे सर्वाधिक कथक में देखा जा सकता है।
इस्लाम का रहस्यवादी पंथ सूफ़ीवाद भी कथक नर्तकों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। ईश्वर से मिलाने वाले प्रेम तत्व का वर्णन लौकिक आभासों से होने के कारण सूफ़ी कवियों का मत कि सारा जगत् रहस्यमय प्रेम सूत्र में बँधा है कथककारों को बहुत लुभाता रहा है। कथक नृत्य में नर्तक द्रुत गति से अपने स्थान पर चक्कर लगाता है तो उस क्रिया को ‘घुमरिया’ कहते हैं। इसी घुमरिया को चक्कर, फिरकनी या भ्रमरी नामों से भी जाना जाता है। ‘उत्प्लवन घुमरिया’ में चक्कर लगाते हुए नर्तक बीच-बीच में उछलता है, ‘एक पाद घुमरिया’ में एक पैर के बल वह चक्कर लगाता है, झुककर चक्कर लगाने की क्रिया ‘कुंचित घुमरिया’ है, चक्र के समान गोलाई से चक्कर लगाना ‘चक्र घुमरिया’ है, एक चक्कर दाईं ओर तथा एक चक्कर बाईं ओर से लेना ‘विपरीत घुमरिया’ है, यदि किसी भी ओर आधा चक्कर लिया जाए तो ‘अर्ध घुमरिया’ है, यदि तिरछे चक्कर लगाए जाएँ तो ‘वक्र घुमरिया’ है। लेकिन यह सब तकनीकी बातें हैं, सच्ची बात तो है बेसुध होकर नाचना, जैसे कोई दीवाना सूफ़ी संत हो। मस्त हो जाना। सूफी संत-फकीर एक विशेष प्रकार का नृत्य करते हैं। इनका एक नाम सूफी दरवेश नृत्य भी है। शान्त, मध्यम और संगीतपूर्ण लयबद्धता में सूफ़ी एक स्थान पर ऐन्टिक्लॉक वाइज़ मस्ती में घूमते हैं। घूमने की गति मस्ती के साथ बढ़ती जाती है। मौलाना रूमी ने सूफ़ी परंपरा में नर्तक साधुओं (गिर्दानी दरवेशों) की परंपरा का संवर्धन किया। रूमी की कविताओं में प्रेम और ईश्वर भक्ति का सुंदर सम्मिश्रण है। इनको हुस्न और ख़ुदा के बारे में लिखने के लिए जाना जाता है। वे लिखते हैं- ‘प्रेमिका सूरज की तरह जलकर घूमती है और आशिक़ घूमते हुए कणों की तरह परिक्रमा करते हैं। जब इश्क़ की हवा हिलोर करती है, तो हर शाख (डाली) जो सूखी नहीं है, नाचते हुए परिक्रमा करती है’।
कथक में भी जिस तरह से भ्रमरियों का प्रदर्शन किया जाता है और जिस तरह लय को साधा जाता है, ज़ाहिरन इस दौर के कथक सूफ़ीयाना की ओर आकर्षित हुए हैं और यह आकर्षण इस चरम तक गया है कि अब ‘सूफ़ी कथक’ नाम से एक अलग धारा भी विकसित हो रही है। कथक में प्रत्येक बोल के अंत की तिहाई इन चक्करों से ही संपन्न होती है। भ्रमरी या चक्री के कई प्रकार चक्री, अर्ध चक्री, विपरीत चक्री का अभ्यास कथक के प्रारंभिक वर्षों के विद्यार्थियों को भी होता है और अभिनय या भाव प्रदर्शन के दौरान गत निकास, गत भाव और ठुमरी भाव, दादरा या भजन या पदाभिनय से शब्दों को मुद्रा व भावों से व्यक्त करने का कौशल भी उसे धीरे-धीरे हासिल होने लगता है। कथक नृत्य की वेशभूषा में भी मुगलकालीन दरबारी प्रभाव को देखा जा सकता है। पुरुष नर्तक चूड़ीदार पैजामा, कुर्ता या अंगरखा पहनते हैं, जबकि कई सूफ़ी दरवेश ऊन का चोगा पहनते थे। केवल इतनी ही समानताओं से सूफ़ी कलाम, कथक नर्तकों को आकर्षित करता हो तो ऐसा नहीं है।
सूफ़ी काव्य परंपरा में बुल्ले शाह का नाम बहुत ही आदर और मान से लिया जाता है। उनके कालजयी काफ़ियों के माध्यम से वे जनसमुदाय में अपनी गहरी पैठ बनाए हुए हैं। बाबा बुल्लेशाह का एक कलाम है – ‘तेरे इश्क नचाइया कर थईआ थईआ’ कहीं न कहीं कथक की शब्दावली भी सूफी कलामों में दिखती है। सूफ़ी कवि नूर मुहम्मद की काव्य भाषा में हिंदी और ब्रज भाषा के शब्दों की बहुलता है। ब्रजभाषा का कृष्ण भक्ति काव्य तो सर्वविदित है ही। भक्ति काल का पूर्व मध्यकाल प्रेममार्गी सूफ़ी शाखा से ओत-प्रोत है। माना जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा। भारत में इसके पहुँचने की सही-सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे।
संयोग, विरह, प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति, रहस्यवाद, उपदेश आदि के रंगों से सराबोर सूफ़ी काफ़ियों की मिठास वर्णनातीत है। सूफ़ी संतों की इबादत, इश्के- हकीकी को बेहद ख़ूबसूरती से कथक में प्रस्तुत किया जाने लगा है। हम्द ‘अल्लाहू अल्लाहू अल्लाहू’ ‘साँवरे तोरे बिना जिया’.. कुछ ऐसे ही सूफीयाना कलाम हैं, जिन्हें शास्त्रीय रागों में ढालकर मंच प्रस्तुति दी जाती है। सूफियाना कलाम में उठान, परन, आमद, तुकड़े, तोड़े आदि इस तरह से आ जाते हैं जैसे सूफ़ी रक्स भी कथक का ही हिस्सा हो। हजरत शाहबाज कलंदर के लिखे ‘दमादम मस्त कलंदर’… कलाम में कलदरी इश्क को कथक के ज़रिए कइयों ने दर्शाया है। अमीर खुसरो के गीत ‘आज रंग है ऐ माँ रंग है री’, ‘चल खुसरो घर आपने’, ‘रैनी चढ़ी रसूल की’,’बहुत कठिन है डगर पनघट की’, ‘काहे को ब्याहे बिदेस’, ‘छाप तिलक सब छीनी रे’… कितनी ही बार कथक नृत्य की प्रस्तुतियों में अपनी जगह बना चुके हैं। हजरत निजामुद्दीन औलिया और हजरत अमीर खुसरो के गुरु-शिष्य प्रेम को सूफ़ी रक्स में देखा जा सकता है।
आइए किसी नर्तक की तरह लगातार चक्कर लें, जिसे कथक नृत्य की परिभाषा में चंक्रमण कहें… २७ या ८१ ‘धा’ वाली तिहाई को करते चले जाएँ.. एक आध्यात्मिक उन्माद हम पर भी छा जाए। सूफ़ी नाच-गाना ‘समा’ प्रार्थना-सभा में बदल जाए और हम भी अमीर खुसरो की तरह अपने गुरु से अरज करे कि ‘हजरत ख्वाजा संग खेलिए धमाल!’
6 thoughts on “‘तेरे इश्क नचाइया कर थईआ थईआ’”
बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी, सूफीवाद से जुड़ा कत्थक नृत्य। बधाइयां।
बहुत बहुत धन्यवाद लतिका जी
लेखिका का कथक का तकनीकी ज्ञान तो लेख की शान है ही पर पाठक को बेसुध कर कथक की लय के साथ थिरकाना इसकी जान है। बधाई।
आपका तथास्तु कहना ही तथास्तु हो जाना मानती हूँ संजय जी। बहुत बहुत धन्यवाद।
ततकार की अनुगूंज से गूंजता लेख ………
ता थेई तत् थेई |
आ थेई तत् थेई |
वाssह सुधा जी, मन खुश हो गया .बहुत बहुत धन्यवाद