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विश्व नृत्य दिवस: कैसा होगा कोरोना पश्चात् नृत्य विश्व ?

कला का उद्भव, विकास होने के बाद जब-जब लगा है कि कला का पतन होने को है, तब-तब कला नए रास्ते खोजकर फिर उद्भव से विकास की यात्रा करती दिखी है। इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। यह ज़रूर है कि हर बार कला पर वज्राघात होने की वजहें अलग-अलग रहीं, अलग-अलग जामे पहनकर कला के साथ खेल खेला गया लेकिन कला स्मित हास्य करती नज़र आई और फिर जी उठी है। कभी बाहरी आक्रांताओं ने आक्रमण किया, कभी देश में ही उसे निर्वासित होना पड़ा, कभी जन संकोच ने उसे घेरा, कभी तिरस्कृत भी होना पड़ा लेकिन कला ने अपने लिए जीवन खोजा याकि यह अधिक सत्य होगा कि कला में ही जीवन दिखा है।

आज के इस विलगीकरण, सामाजिक दूरी बनाए रखने की बलात् विवशता में वह और प्रखर दिख रहा है कि कला को आश्रय की आवश्यकता नहीं है, बल्कि कला ही आश्रय प्रदान करने की भूमिका में दिख रही है। जो कला से बड़े दूर खड़े थे वे भी कला के तट पर खड़े दिख रहे हैं, तूलिका पकड़ अपने जीवन में रंग भर रहे हैं, पुराने शौक जीवित कर रहे हैं, कोई गायिकी आज़मा रहा है, कोई अपने पुराने वाद्यों की धूल साफ़ कर रहा है। विश्व नृत्य दिवस के परिप्रेक्ष्य में बात नृत्य की करते हैं, बात करते हैं नृत्य के भविष्य की और बातों ही बातों में बात कुछ नर्तकों से भी जो इसे शौकिया नहीं, बल्कि बड़ी संजीदगी से इसे करते आ रहे हैं।

इस आकस्मिक दौर को मूलत: सभी इसी तरह परिभाषित कर रहे हैं कि जीवन अपने पुराने दिनों में लौट रहा है, तो कला का क्षेत्र भी उससे अछूता कैसे रह सकता है। कला उस सादगी के दौर की तरफ़ बढ़ रही है, जहाँ चमक-दमक, बाहरी आवरण नहीं था। पुराने कथकों से बात कीजिए तो वे यही कहेंगे कि तब बैठकें हुआ करती थीं, मंच नहीं होते थे। मंच नहीं थे तो लाइट्स, कैमरा भी नहीं थे, छोटी बैठकें होती थीं, साजिंदे तो होते थे लेकिन बड़े ताम-झाम नहीं थे। घुंघरू की साफ़-साफ़ खनक को बड़े पास से बैठकर सुना जा सकता था, फुट माइक हो ही, ऐसा आवश्यक नहीं था तो आपका काम ही बोलता था… पैरों की निकासी ही देखी जा सकती थी और बिना लाग लपेट के प्रदर्शन होता था। कथक प्रदर्शनकारी कला है तो उसमें भारी पोशाक और गहने-जेवरात होते थे लेकिन वे ही प्रमुख नहीं होते थे। केंद्र में कथक था और बाकी चीज़ें उसके आसपास थी, परिधि में थीं मतलब केंद्र से दूर के सिरे पर लेकिन अब ऐसा कुछ हुआ था कि बाकी चीज़ें ज्यादा महत्वपूर्ण हो गईं और कथक ही केंद्र से सुदूर चला गया। अब इस दौर ने कथक से जुड़े ग्लैमर को दूर कर दिया है। अब आपको कथक (या कि कोई भी नृत्य फार्म) के नाम पर कुछ भी करके नहीं चलेगा। नृत्यांगना या नर्तक कहला रहे हैं तो पहले उसे ही सामने रखना होगा फिर आप जो चाहें और आज़मा सकते हैं।

राह तलाशते हुए नर्तकों ने सोशल मीडिया पर अपनी रियाज़ या अपनी किसी चीज़ को प्रस्तुत करना शुरू भी कर दिया है। तोड़ों-टुकड़ों की चुनौतियों (चैलेंजेस) को लिया-दिया जा रहा है। कुछ दिनों पहले ही पंडित बिरजू महाराज जी ने परन चैलेंज पोस्ट किया था। कई नर्तकों ने उसे कोरियोग्राफ कर इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया था। उसके बाद तिहाई कंपोजिशन चैलेंज आया था… वह भी काफी चर्चित रहा था। बिल्कुल उनके घर-गलियारे, आंगन-छत से नृत्य प्रस्तुति करते हुए वीडियो अपलोड हो रहे हैं, ज़ाहिरन जो अलाइड्स थे वे माइनस हो गए हैं, मतलब मंच पर जिन चीज़ों की जोड़ मिल जाती थी, लाइट्स कह लीजिए, बैकड्रॉप कह लीजिए या समूह के अन्य कलाकार कह लीजिए, वे सब घट गए हैं, अब आप है, न्यूड लाइट में और आपका एकल नर्तन है और अनगिनत दर्शक हैं। ये दर्शक वे नहीं हैं जो आपको जानते हैं, वे नहीं हैं जो आपकी नृत्य कक्षा में आते हैं या नृत्य कक्षा में आने वालों के अभिभावक हैं, ये वे अनजान लोग हैं, जो या तो आपके वीडियो को देखने के लिए रुकेंगे या अगली पोस्ट पर बढ़ जाएँगे। उनके लिए आपको लाइक करना अब वैसी परिपाटी नहीं रहेगी, वैसे मजबूरी नहीं रहेगी। वे चाहेंगे तो आपको पसंद करेंगे, अच्छा नहीं लगा तो आप वक्त के हाशिये पर चले जाएँगे।

इस दौर में चिंतन करने की आवश्यकता है कि क्या हमने नृत्य को इसलिए सीखा था कि हम नृत्य करना चाहते थे या इसे भी भविष्य के निवेश की तरह सोचा था कि क्लास शुरू कर सकेंगे… कुछ पैसे कमा लेंगे। यदि नृत्य को नृत्य के लिए सीखा था और अपनी आध्यात्मिक उन्नति चाह रहे थे तो चिंता करने की कोई बात ही नहीं है। यह अवसर मिला है तो उसे सुअवसर में बदल लीजिए। श्रीकृष्ण ने अपनी बहन को चिंतित देखकर कहा था- जब चिंता हो तब चिंतन किया करो सुभद्रे… और अब हमें चिंतन की ओर ही अग्रसर होना है।

डॉ. पुरु दाधीच | PC: wikipedia

संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ नृत्य पंडित इंदौर से डॉ. पुरु दाधीच (कथक- जयपुर घराना) पुराना दोहा याद कर कहते हैं, ‘देह धरे को दंड है, सब काहू को होय। ज्ञानी भुगते ज्ञान ते, मूर्ख भुगते रोय॥’ वे कहते हैं हमें मूर्ख नहीं बनना है, ज्ञानी बनकर समय व्यतीत कर मानव हित में अच्छा कार्य करते रहना है। व्यक्तिगत कष्टों को भूलकर सकारात्मक सोच रखते हुए रचनात्मक कार्यों की ओर उन्मुख होना होगा। हर क्षेत्र में सृजनात्मकता होती है। जो जहाँ है वहाँ रहकर रचनात्मकता से  सोच सकता है। मैं अपना समय रचनात्मक कार्यों में ही व्यतीत करता रहा हूँ और अब भी इसे अवसर मानते हुए अपनी दो अधूरी पुस्तकें पूरी करने में लगा हूँ साथ ही शिष्य-शिष्याओं के रचनानात्मक प्रश्नों का ऑनलाइन उत्तर देकर समाधान करने का प्रयास करता हूँ। युवा कलाकारों से इस ख़ाली समय में और ज़्यादा लगन से मेहनत और रियाज़ की अपेक्षा है। वर्चुअल कार्यक्रमों का दौर शुरू हो चुका है। आने वाले समय में और अधिक ऑनलाइन कार्यक्रम हो सकते हैं। संस्कृति मंत्रालय भी इस दिशा में विचार कर रहा है लेकिन तब तक नए सृजमात्मक कार्य करते रहें।

सोनाली चक्रवर्ती

नृत्य को साधना मानने वाली और उसे साधक की तरह सतत करते रहने वाली पुणे की कथक नृत्यांगना सोनाली चक्रवर्ती (लखनऊ घराना) कहती हैं कम से कम एक साल तक तो कार्यक्रम स्थगित ही कहे जा सकते हैं। उसके बाद भी 25-50 लोगों की छोटी बैठकें या मंदिरों में कार्यक्रम की परंपरा फिर से शुरू हो सकती है। जिसमें बहुत ज्यादा शोर-शराबा नहीं होगा। पहले भी ऐसे कार्यक्रमों में आने वाले दर्शक-श्रोताओं की संख्या बहुत नहीं होती थी और अब तो वह और भी नगण्य हो जाएगी। शायद अच्छी बड़ी संख्या में दर्शकों की उपस्थिति के लिए कम से कम तीन साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। वे कलाकार जो कला को पार्ट टाइम की तरह कर रहे थे या इसे व्यवसाय समझ इस पर जीवन यापन कर रहे थे, उन्हें बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ सकता है। कला उद्योग के चरमराने के आसार है। जो लोग इसे जीने का तरीका मानकर कर रहे थे, उनके लिए यह आध्यात्मिक उन्नति का बड़ा सोपान है लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है और उन्हें भी बहुत धैर्य रख कला पर विश्वास करना होगा। और यह भी केवल उन्हीं हालात में जबकि यदि हम जीवित रहे क्योंकि जीवित रहना ही बड़ी चुनौती होगा और उस पर भी मानसिक-शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना तो और भी महत्वपूर्ण। कला को हमेशा गैर जरूरी माना जाता रहा है तो जरूरी कार्यों की सूची में यह पीछे चली जाएगी। हो सकता है कि कुछ हद तक क्लासेस, संस्थान फिर शुरू हो जाएँ लेकिन प्रस्तुतियों पर तो थोड़ा विराम लग ही गया है।

भगवानदास मानिक

कथक के प्रमुख नर्तक ग्वालियर से भगवानदास मानिक (रायगढ़ घराना) ज़ोर देते हैं कि प्राचीन काल में जब शिष्य अपने गुरुजन के निवास स्थान पर जाकर सीखते थे तब उनके सामने ये उद्देश्य नहीं हुआ करता था कि वो आगे चलकर नौकरी आदि के विचार से सीख रहे हैं। अब सीखने से पहले उद्देश्य तलाशते हैं तो उन लोगों के लिए ये समय कठिन अवश्य है, परंतु कला साधकों के लिए यह एक अवसर भी है जिसमें वे अपना रियाज़ कर अपने आपको और अधिक सक्षम बना सकते है और आने वाले समय के लिए तैयार कर सकते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं कि इस महामारी के चलते अवश्य ही सब बदल गया है। सभी लोग आने वाले काफी समय तक इससे उभरने की कोशिश करते रहेंगे पर ऐसा नहीं है कि ये कभी ख़तम नहीं होगा। पर आने वाले समय में जीवन सरल नहीं होगा। देश के प्रधान मंत्री के मार्ग पर चलकर देश कोरोना से इस लड़ाई में जल्दी ही जीतेगा और जन जीवन वापस अपनी गति जल्द ही पकड़ेगा पर तब तक शास्त्रीय नृत्य ही नहीं, वरन सभी कलाओं का उत्थान के लिए अभी हमारे पास अधिकाधिक समय है रियाज करने का। हम निरंतर रियाज करके अपनी कला में नवीन प्रयोग कर भविष्य की चुनौती के लिए अपने आपको सक्षम बनाएँ तो क्या ही बेहतर हो।

जया श्रीनिवासन

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए बैंगलोर से कथक नृत्यांगना जया श्रीनिवासन (रायगढ़ घराना) कहती हैं कि ऑनलाइन क्लासेस शुरू हो सकती हैं। प्रस्तुतियों के अवसर तो कम हो जाएँगे लेकिन यू-ट्यूब, फेसबुक आदि से ऑनलाइन पोडकास्ट से दर्शकों तक पहुँचा जा सकेगा। इन दिनों यू-ट्यूब, फेसबुक के अलावा इंस्टाग्राम पर भी नृत्यकारों की काफी हलचल देखी जा सकती है क्योंकि हर कोई अपने लिए मंच तलाश रहा है। लॉकडाउन स्थिति में ये सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ हैं। लोग इन तरीकों से अपनी रचनात्मकता को दिखा रहे हैं। एक रास्ता बंद होगा तो शायद दूसरा खुल जाए कि इससे विज्ञापनों से कुछ राजस्व मिल जाए। हो सकता है कि नृत्य का वास्तविक रूप भी कुछ बदल जाए। हो सकता है संगतकार परिदृश्य से चले जाए। नर्तकों को रिकार्डेड संगीत का सहारा अधिक लेना पड़ सकता है। रिकार्डेड संगीत की गुणवत्ता और सोशल नेटवर्क साइट्स पर आने वाले दर्शकों की गुणवत्ता का असर भी कथक की शुद्धता पर पड़ सकता है। सभागृहों के प्रभाव को झूठलाया नहीं जा सकता। सभागार भी अपना व्यवसाय खो देंगे और उससे जुड़े लोग मसलन उसका रखरखाव करने वाले, वहां की प्रकाश व्यवस्था संभालने वाले भी अपना रोजगार खो देंगे।

प्रचीती डांगे

लंदन से युवा ओड़िसी नृत्यांगना प्रचीती डांगे कहती हैं कि कोविद 19 ने पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया है। इस कारण विश्वव्यापी आर्थिक हानि हुई है, खासकर जो खुद कमा-खा रहे थे। हर चीज़ पीछे छूटेगी लेकिन तब भी सब कुछ सामान्य होने में, साथ में काम करने का समय आने में लंबा धैर्य लगेगा। चूँकि अधिकांश शास्त्रीय नर्तक अपने बूते पर कमाते हैं, जिसे आप सेल्फ इंप्लॉइड या फ्रीलांसर कह सकते हैं तो उनके सामने आर्थिक तंगी या पैसों की कमी की चिंता खड़ी हो सकती है और उन्हें इससे उबरने में लंबा समय लग सकता है।

इस लॉकडाउन में कई नर्तकों ने ऑनलाइन काम करना शुरू कर दिया है ताकि वे सीखा सकें और अपने दर्शकों से जुड़ भी सकें। कई संस्थाओं ने विभिन्न कलाकारों के कार्यक्रमों को लाइव करवाना शुरू कर दिया है। कई संस्थाओं और कलाकारों ने उनके पूर्व प्रदर्शित कार्यक्रमों और प्रोडक्शनंस के वीडियो अपलोड करने का काम अपने हाथों में लिया है ताकि दर्शक उन्हें देख आनंदित हो सकें।

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यह तो कुछ पहलू है लेकिन कलाकार और दर्शकों के बीच के संबंधों में इससे भी अधिक अंतर देखा जा सकता है। कला अब घर बैठे और कम से कम चीज़ों को जोड़कर देखे जाने वाली होगी। सभागार तक जाने की प्रतिबंधता नहीं रहेगी तो पूरे विश्व के लोग अपने घरों से लाइव प्रस्तुतियों को देख सकेंगे। इसका एक पहलू यह भी है कि स्क्रीन पर प्रस्तुतकर्ता को प्रस्तुति कर मिलने वाला आनंद और ऊर्जा उस तरह से न मिल पाएँ जो दर्शकों की तालियों से मिलती थी। पर निश्चित ही यह समय एकांत में बैठकर अपने आप से संवाद करने और रचनात्मक बने रहने का है। आमतौर पर तयशुदा कई कार्यक्रमों के बीच कलाकार को इस तरह बैठकर सोचने का समय नहीं मिलता था, अब इसे वरदान की तरह लेते हुए वह कॉन्सेप्टस पर ज्यादा ध्यान दे सकता है और नई कोरियोग्राफी के बारे में विचार कर सकता है। कम बजट में छोटी बैठकें फिर से शुरू हो सकती हैं। हमारे शास्त्रीय नृत्य सदियों से जीवित हैं और यह परंपरा अनादि काल तक जीवित रहेगी।

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