एक अजीब-सी बात हुई.. बीते दिनों बहुत-से नृत्य आयोजनों में जाने का अवसर मिला और कई प्रस्तुतियों को देखा..सबको देखते हुए अजीब-सी बेचैनी पैदा होती रही.. जिस सुकून, शांति, मानस के ठहराव की चाह थी उसका दूर तक पता न था.. एक उन्माद था.. जो बिछा पड़ा था… एक सवाल को छोड़ते हुए कि तेजी-तैयारी-चक्कर… क्या इसी का नाम कथक है?
आपने शादी-ब्याह में रोटी बनाने वाले रसोइये, बड़े होटल के खानसामा…और ढाबे के रोटी बेलने/थापने वाले को देखा है… आपने घर में किसी स्त्री को रोटी बनाते देखा है.. घर की स्त्री जिस इत्मीनान से, प्यार से हर फुलके को फूलकर कुप्पा होने देती है, क्या उतना धैर्य रोटी का व्यवसाय करने वालों के हाथों-चेहरे में दिखता है? रोटी दोनों बनाते हैं, रोटी दोनों की पक्की होती है! मतलब कच्ची या अधपकी नहीं होती लेकिन होटल की दो रोटी खाने पर भी तृप्ति नहीं मिलती और घर की एक रोटी भी आत्मा को तृप्त कर देती है। दरअसल शास्त्रीय नृत्य या कि यहाँ कथक की ही बात कर लूँ तो वह उस रोटी की तरह होना चाहिए जो आत्मा को तृप्त कर दे। एक घंटे में सौ चपातियाँ बनाने वाले और एक प्रस्तुति में सौ चक्कर लेने वाले से हमें क्या मतलब होना चाहिए? हम क्या चाहते हैं, रसास्वादन या करतबबाजी?
वे ठूँठ की तरह खड़े होकर नाचने वाले, वे छाती बाहर निकाल कर नाचने वाले… ऐसे नृत्य किया जाता है क्या? कोई भी शास्त्रीय कला आपको विनम्र होना सिखाती है, गर्व से तनना नहीं।
प्रकृति की हर छटा को देख लीजिए उसमें एक कर्व है, झुकाव है, सीधा-तना कुछ नहीं। पर्वत हो या पानी की लहरें, हवा के साथ हिलोर लेने वाले पत्ते हों या उड़ान भरते पक्षी… कोई भी एकदम सीधा नहीं होता, हलकी-सी गोलाई, वक्रता होती है। यदि सीधी रेखा खींच दूँ तो उसे कोई चित्र नहीं कहेगा.. उसमें जब कर्व आएगा तो कहेंगे हाँ चित्र है। इतना ही क्यों किसी तैराक को देखिए… उसके हाथों की चाल और पैरों की गति को पकड़िए…. हाथ एक गोलाई में चलते हैं और पानी को चीरते हैं… बास्केटबॉल की प्रैक्टिस देखने कभी मैदान में जाइए उनका एक अभ्यास है- स्वैन की तरह चलने का। खेल में भी हंस गति है तो जब आप नृत्य कर रहे हैं तो उसमें निश्चित ही नृत्य दिखना चाहिए।
आकाशचारी दिखाना (कथक में एक प्रकार जिसमें हवा में उछलते हैं), पैर ठोक-ठोककर बेजा नाचना, लटके-झटके, पुरुष हुआ तो बाल सँवारना, स्त्री हुई तो लटों को उड़ने देना.. इन सबके लिए कथक देखने आने वाले और तालियाँ बजाने वाले बहुत भी हुए तो क्या उससे कथक का भला होने वाला है? यह तो बिलकुल वैसा ही है जैसा सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक्स के आधार पर किसी भी विधा को शास्त्रोक्त कह देना।
तेजी-तैयारी दिखाने के लिए प्रस्तुति मत दीजिए.. आपकी प्रस्तुति में आपकी यात्रा दिखनी चाहिए कि आपने कलाकार के रूप में कहाँ तक यात्रा कर ली.. क्या साध लिया.. साधोगे तो सधेगा।
किसी पर रौब जमाने, किसी पर रुतबा जमाने के लिए नृत्य करेंगे तो लोग ताली बजाएँगे, घर चले जाएँगे पर इनसे परे स्वानुभव के लिए नृत्य करेंगे तो सच्चा आनंद पा लेंगे… सच्चा आनंद दे सकेंगे। आप प्रस्तुति देने खड़े हैं इसका मतलब ही है कि आपने 45 मिनट की प्रस्तुति के लिए कम से कम 45 घंटे खर्च किए हैं.. उस मेहनत को पसीने की बूँदों में झलकने दीजिए जो चुपचाप बहती हैं… बिना कुछ कहे।
इन दिनों की प्रस्तुतियों में कलाकार और उनका ट्रुप (दल-बल) होता है.. मुख्य कलाकार थोड़ी प्रस्तुति देता है और उसके शिष्य खाली कैनवास को भरने का काम करते हैं। कथक एकल नृत्य के लिए जाना जाता है, वह समूह नृत्य नहीं है इस मूल बात को ही दरकिनार किया जा रहा है।
एकल नृत्य करेंगे तो आप भी जान सकेंगे कि हम सबमें एक ही ईश्वर कभी राम बन, कभी रावण बन कर कार्य कर रहा है.. समूह नृत्य आपको ऐहिक सुख दे देगा लेकिन अलौलिक सुख से आप वंचित रह जाएँगे।
तब त्रिकोणमिति की तरह रेखाएँ खींच, कोरियोग्राफ़ी कर आप नृत्य करेंगे लेकिन वह कितना कथक होगा पता नहीं, आप फ्यूज़न करेंगे.. और डर है समय के साथ लोग कहने लगेंगे हम कथक करते हैं, सेमी क्लासिकल कथक! मेरे कथक को इससे बचाइए.. सेमी क्लासिकल हो जाने से बचाइए।
13 thoughts on “तेजी-तैयारी-चक्कर… क्या इसी का नाम कथक है?”
Dhanyawad bahut khoob Likha hai Kathak Ka swaroop badalta jaa Raha hai…jese – lyrical Kathak ….semi Classical…. Gharwali kathak…bangya Gharana Kathak …
पसंद करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया..हमें अपनी आवाज उठानी ही होगी…इस आवाज में साथ देने के लिए पुनश्च धन्यवाद
मन में उभरते प्रश्नों को सबके साथ साझा करना, साहसपूर्ण आलेख।
सबका साथ हो तो निश्चित ही परिदृश्य बदला जा सकता है, इस विश्वास को जगाने के लिए मन से आभार
बहुत सुंदर आलेख। कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाया है आपने । आजकल हर कला व्यावसायिक होती जा रही है । ऐसे में कला की शुद्धता को कैसे जीवित रखा जाए , यह एक चुनौती है ।
इसे पसंद करने और अपनी महती प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत बहुत आभार अनूप जी..इससे निश्चित ही बल मिलता है, बहुत बहुत धन्यवाद भी 🙂
बहुत जरूरी और मानीखेज मुद्दा उठाया है ।
हाँ न…बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी …हाँ न!
Very well written, but I believe art has a nature to evolve. If it is art, it will evolve with its artists, which would give it a new mould every time they learn, perform and pass it to other students. Else it is not art, if it remains stagnant.
जी..कला नदी की तरह बहती रहे यह तो निश्चित ही सत्य है, अन्यथा ठहराव सडांध ले आएगा…पर नदी हमेशा अपने मूल रूप में ही बहती है, वह किसी भी मोड से गुजरे अपना स्वभाव , नाम, गुणधर्म नहीं बदलती न…
बहुत पते की बात कही है आपने और ये असल मे सिर्फ कथक ही नहीं अपितु सभी कला क्षेत्रों पर लागू है । आप अच्छा लिखती हैं, भविष्य के लेखन हेतु शुभकामनाएं।
आप सभी सुधीजनों का आशीर्वाद है…स्नेह बना रहे
जी धन्यवाद, मैं कथक में विशारद और सन्गीताचार्य हूँ, हेरिटेज मेनेजमेन्ट की छात्रा हूँ, और कथक पर अपना थीसिस बना रही हूँ | इस उद्देश्य से सबके विचार समझने का प्रयास कर रही हूँ| आपकी शुभकामनाओं के लिए सादर धन्यवाद|