बार-बार यह सवाल उठता रहा है कि कला का असली मकसद क्या है? कला को कला के लिए होना चाहिए या कला का उद्देश्य समाज सुधार होना चाहिए। संगीत के क्षेत्र की बात करें तो इसमें मार्गी संगीत है जो विशिष्ट राग, लय-ताल में निबद्ध होकर भी स्वतंत्र लय, छंद को लेकर चलता है। अर्थात् स्वतंत्रता का पुरस्कार भारतीय शास्त्रीय संगीत में दिखता है लेकिन उस तरह से कहने की स्वतंत्रता नहीं है। समाज में समय-समय पर जितने बदलाव हुए वे भारतीय शास्त्रीय संगीत में उस तरह नहीं आते जैसे कला के अन्य रूपों यथा रंगमंच, कविता या चित्रकला आदि में दिखते हैं। ऐसा क्यों हुआ होगा, यह प्रश्न करने से पहले इस पर सोचने की आवश्यकता है।
दरअसल यह उस पहले सवाल का उन्हीं शब्दों में उत्तर भी है कि कला, कला के लिए है। हम यदि किसी सांगीतिक महफ़िल में जाते हैं तो हमारा मूल उद्देश्य उस कला का आस्वाद ग्रहण करना होता है। सीख, उपदेश, भाषण या नीति-नियमों की चर्चा के लिए हम अन्य प्रबोधनकारी मंचों का आश्रय ले सकते हैं। मतलब भारतीय शास्त्रीय संगीत का उद्देश्य उस तरह से प्रबोधन या सीख देना नहीं है। तत्कालीन परिस्थितियों पर भाष्य करने का यह माध्यम नहीं है। यह माध्यम आपको सार्वकालिक, सार्वभौमिक प्रश्नों के उत्तरों की ओर ले जाता है। काव्य शास्त्र के नवरस भी यहाँ आते हैं तो अपने पूरे माधुर्य के साथ… मिठास और लगाव भारतीय शास्त्रीय संगीत (गायन, वादन, नर्तन) की खास पहचान है… और भारतीय शास्त्रीय संगीत ही क्यों, किसी भी देश के शास्त्रीय संगीत की मूल आत्मा दर्शक के मन में रस की उत्पत्ति करना है, उसे नीरस करना नहीं है।
शास्त्रीय सांगीतिक बैठक में रसास्वादन करने पहुँचा दर्शक किसी ख़ास राग की निष्पत्ति, उसके विकास, आरोह-अवरोह और उसकी खास तानों को सुनने की गरज से पहुँचता है। वह राग को देखना और नृत्य को सुनना चाहता है, अर्थात् कोई भी राग गायक के गले से निकलकर पूरे मंच पर कैसे छा जाता है, वह स्त्रीद्योतक है या पुरुषद्योतक, तब उसकी प्रस्तुति में वह नज़ाकत या वह भराव है या नहीं, यह देखने की मंशा दर्शक की होती है और नृत्य प्रस्तुति देखते हुए ठीक इसी तरह वह हर बोल को प्रस्तुतकर्ता के पैरों से निकलकर अपने कानों तक पहुँचने में सुनना चाहता है।
यह कोई दंत कथा नहीं बल्कि कइयों के द्वारा अनुभव किया गया सत्य है कि हर राग का अपना अलग रंग, रूप, पेहराव है और यदि कोई सधा हुआ पक्का गायक उसे गाता है या कसा हुआ वादक अपने वाद्ययंत्र को बजाता है, तो जैसे राग का पैटर्न ठीक उसी तरह दिखता है जैसे सिलाई-कढ़ाई, बुनाई के नमूनों में पैटर्न दिखता है और वह पैटर्न सुनने वाले के सामने खड़ा हो उसे दिखने लगता है मतलब राग अमूर्त से मूर्त रूप धारण करने लगता है। यही बात कमोबेश गायन, वादन या नर्तन के दौरान होती है। नृत्य को देखते हुए वह दर्शक नहीं, श्रोता होता है जो ताल के हर बोल की निकासी को ठीक-ठीक सुनना चाहता है। नर्तक के साथ वह लय रंगोली के रंगों की तरह सजने लगती है और लय उसकी देह से भी सुनी जा सकती है। यहाँ राग या ताल (क्रमश: गायन और वादन-नर्तन में) प्रमुख होते हैं और शब्द आदि गौण।
तब आपको लगता है कि बार-बार राधा-कृष्ण का वर्णन ही क्यों कर होता है तो उसका कारण भी यही है। राधा-कृष्ण की कथा सुप्रचलित है, उसका कोई भी प्रसंग सामने रखने पर दर्शक उस प्रसंग की प्रस्तावना से उपसंहार तक नहीं उलझता बल्कि वह उसे जानता है इसलिए उसका ध्यान प्रस्तुति पर होता है कि राग या ताल को कैसे बरता गया है। इतना ही नहीं बल्कि यह भी कहा गया है कि लीला वर्णन सुनने से आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। समाज के चक्रव्यूह में उलझा व्यक्ति राम-लक्ष्मण या शिव-पार्वती या राधा-कृष्ण के आख्यान को सुन-देखकर कुछ समय के लिए बाहरी उलझनों से मुक्त होकर शांति की अवस्था में पहुँच जाता है। जैसे किसी सैलाब के साथ बहते हुए केवल कश्ती ही नहीं, उसमें बैठा व्यक्ति, केवल मल्लाह ही नहीं, यात्री भी उस पार लग जाता है वैसे ही सच्चे कलाकार की कला साधना के दौरान अनुभूत किया जा सकता है। संगीत का उद्देश्य खुद के स्वरूप में रमणराम होना है। बाहरी सारी बातें परिवर्तनशील हैं पर जो अपरिवर्तनकारी है उसे जानने का मार्ग संगीत से होकर जाता है। अर्थात् ही यही एकमात्र मार्ग है उससे आगे की यात्रा तो व्यक्ति को खुद तय करनी होती है।
यदि कोई समसामयिक विषय उठाया जाता है तो गायन, गायन न रहकर नारों में बदल जाएगा और नर्तन भी उपदेशात्मक हो जाएगा। समाज में होने वाले ताज़े घटनाक्रम पर प्रकाश डालने का काम संगीतकारों का नहीं है, जिसका जो काम है, उसे वही करना चाहिए। हम समाज के अन्य तबकों से कभी ऐसी अपेक्षा नहीं करते, हम व्यवसायियों से केवल उन प्रश्नों को पूछते हैं, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध कारोबार से होता है, इसी तरह हम चिकित्सकों, अभियंताओं या प्रशासनिक सेवाकर्मियों से भी चुनिंदा सवाल ही पूछते हैं। यहाँ तक कि हम राजनेताओं से भी ‘राग दरबारी’ की मीमांसा नहीं चाहते फिर कला पर यह दबाव क्योंकि उसे समसामयिक प्रश्नों को हल करना चाहिए।
[adrotate group=”9″]
कला अपने पूरे सौंदर्य के साथ आभिजात्य शैली है और उसका परम लक्ष्य परम तत्व से एकाकार होना है। जहाँ कोई दो नहीं होते, बल्कि सब एक होते हैं, एक से उद्धृत और एक में ही आहूत होते हैं। जिस दुनिया में सब एक समान हैं, वहाँ किसी तरह के अलगाव, मत भिन्नता, मत-मतांतर या दूषण, हिंसा, व्यभिचार आदि की बात ही कहाँ से हो सकती है? इस बारे में कलाकारों को भी सोचना चाहिए कि उनका परम लक्ष्य अपने साथ अपने दर्शकों-श्रोताओं को भी परम तत्व से एकाकार कराना है न कि उन्हें रोजमर्रा की जीवटताओं, परेशानियों-उलझनों में उलझे रहने देना है। पानी के बुलबुले के समान समसामयिक प्रश्न होते हैं जो आज गंभीर दिखते हैं, कल इतिहास हो जाते हैं लेकिन मानव की मानवेतर गाथा अजर-अमर होती है और उसे ही जिलाये रखना, विस्मृति में जाने से बचाए रखना कलाकार का परम लक्ष्य होना चाहिए।