मैंने कथक सीखा उसी जतन से जिस जतन से कोई किसी भी कला फ़ॉर्म को सीखता है लेकिन वो मुझसे छूट गया वैसे ही जैसे प्रेमी छूट जाता है। कविता रही… कविता मेरे साथ बनी रही क्योंकि वो जीवन से जुड़ी थी।
कथक को मैंने प्रेमी से इसलिए तौला क्योंकि आज भी कोई बोल बरबस मेरे जेहन में आता है तो मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। कहीं कुछ सुनती हूँ कथक को लेकर, तो मन मोर नाच उठता है। पर आधी रात उठकर मन आए तो कथक नहीं कर सकती जैसे जब जी चाहे प्रेमी से नहीं मिल सकते। हाँ कविता लिख सकते हैं रात दो बजे भी।
हर बच्चा चाहे वो लड़का हो या लड़की बचपन में ठुमकता है। लड़कों का ये ठुमकना बाद में छूट जाता है, उसके कई दीगर कारण होते हैं लेकिन लड़कियों का ठुमकना नाचने में बदलता रहता है। परंपरागत तरीके से वो घर में नाचती है, फिर आईने के सामने नाचती है। कुछ मेरी तरह खुशकिस्मत होती हैं जिन्हें बाकायदा तालीम मिलती है वरना लड़कियों का नाच-गाना, शादी-ब्याह के ‘लेडीज़ संगीत’ तक सिमट जाता है। कितनी अजीब बात है हम बच्चों को नाचने से रोकते है, जबकि वो तो जीवन है। वो खुशी का चरमोत्कर्ष है। नाचते-नाचते आँखों से अश्रु झर पड़ें तो जयदेव हो जाता है… तो मीरा हो जाती है। पर हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे उस परमानंद को पा लें। वे प्यार की उस अथाह गोह में जा सकें।
पर जैसा कि मैंने कहा मैं खुशनसीब थी। मैंने बहुत कम उम्र से कथक सीखना शुरू किया… शायद चार साल…. शायद तीन.. शायद याद भी नहीं। बस करती गई ‘ता थेई’। बाद में या कि बहुत बाद में समझी कि अरे एक भरत नाट्य शास्त्र भी है। पूरा का पूरा ग्रंथ है केवल कलाओं के लिए। हर कला का उसमें जिक्र है। उसमें सैकड़ों भाव-मुद्राओं और अभिनय का वर्णन है। जो कुछ उसमें लिखा था, जो परिभाषित था उसे मैं रोज़-ब-रोज़ कर भी रही थी। मैं क्यों, आप-हम सब करते हैं। नमस्ते कहते हैं न.. अब वो तो दो पताका मुद्राओं के मेल से बना है। हम बच्चों को सिखाते हैं नमस्ते करना, हम उन्हें नृत्य करना सिखा रहे होते हैं।
नृत्य जीवन से इतना जुड़ा है यह तो पता ही नहीं होता। नायक-नायिका भेद जो वर्णित है, वे केवल नृत्य के लिए या थियेटर के लिए कैसे हो सकते हैं। वे तो आपमें-मुझमें है। बात जब मैं कथक की कर रही हूँ तो यह खास तरह से ध्रुपद गायिकी की तरह है। परत दर परत खुलता चला जाता है। कहा जाता है कि इसमें दाक्षिणात्य और अन्य नृत्यों की तरह भाव पक्ष कम है और पैरों की निकासी पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। लेकिन आप गत भाव को लीजिए। पूरी एक कहानी भावों के जरिए बिना शब्द, बिना संगीत के,केवल ‘तत ता थेई’ कहते हुए कह दी जाती है। इसका तो नाम ही है कथक-कथा कहे सो कथक कहलाए। फिर इसमें और अन्य नृत्य विधाओं में अंतर कैसे होगा।
ये अंतर होता है उसे बरतने की शैली में। कथक में सबसे ज़्यादा पैर नाचते हैं। इसका कोई तयशुदा फ़ॉर्मेट नहीं होता कि जैसे यक्षगान से ही प्रारंभ हो। अलबत्ता इसमें यक्षगान नहीं होता। कभी कोई वंदना से प्रारंभ करता है, कभी कोई चक्कर लेते हुए मंच पर आता है। कभी उठान से मंच को गति मिलती है तो कभी आमद से। आमद के बाद आता है ठाट। ठाट याने खड़े रहने की भंगिमा, ‘ए पोज़’। कैसे धीरे-धीरे हम जीवन पाते हैं वैसे धीरे धीरे यह नृत्य खुलता है। केवल तटस्थ खड़े रहना, फिर कसक मसक करना। फिर ताल से समरस होते हुए विभिन्न ठाट दिखाना और ठाट की समाप्ति पर सलामी करना या प्रणाम का तोड़ा नाचना। विलंबित लय से धीरे-धीरे इसमें प्राण फूँकते हैं जो मध्य और अंत में द्रुत में जाता है। इसमें तबले के बोल हैं तो पखावज के भी। अमूर्त को साकार करना तराना है जिसमें ‘ओम तोम’ है तो मूर्त ठुमरी भी। इसका समापन भी हर कोई अलग अंदाज़ में करता है कोई ठुमरी से, कोई जुगलबंदी से, कोई ततकार से तो कोई चक्करों या अन्य चमत्कारों से। निश्चित समय, निश्चित ताल और निश्चित मात्रा में नाचना,बेताला न होना जैसे अनुशासन दे जाता है।
इसकी वेशभूषा भी देखिए कितनी लहरदार है। शायद सारी भ्रमरियों (चक्करों) के लिए एकदम उपयुक्त। लखनऊ घराने में अनारकली की पोशाक है तो जयपुर घराने में घागरा। दोनों में ही घेर बहुत हैं ताकि हर चक्कर को वो और सुंदर कर दे।
कथक को जानकर आप बड़ी आसानी से हमारे इतिहास को जान सकते हैं। भारत पर होने वाले जितने आक्रमणों का असर इस नृत्य विधा पर पड़ा अन्य किसी पर नहीं पड़ा। अन्य शास्त्रीय नृत्यों की तरह यह विधा भी मंदिरों से निकली लेकिन वो अपने मूल स्वरूप के आसपास रही। इसमें भी कथक की आत्मा का लोप नहीं हुआ पर उसका बाह्य रूप बदलता गया। उस पर मुगलों का प्रभाव पड़ा। जयपुर के राजपूत राजाओं का प्रभाव पड़ा। बनारस की कर्मठता दिखाई दी और अब फ्यूज़न रूप में यह पाश्चात्य और आधुनिक शैली से मिल गया।
कथक या गायन या थियेटर सामूहिकता से जोड़ता है। आप अकेले उसे नहीं कर सकते। नृत्य और संगीत में तो संगतकार का खासा सहयोग जरूरी होता है। यदि संगतकार से मन के सुर नहीं मिले तो मंच पर उसका असर दिखता है। फ़िल्मी भाषा में जिसे कैमिस्ट्री जुड़ना कहते है वो कैमिस्ट्री मंच पर भी दिखती है। संगतकार का सम्मान करना बहुत जरूरी-सा होता है। यह कला खुद को छोटा और दूसरों को बड़ा कहने का सलीका सिखाती है। लेकिन फिर बात वही कि समूह की सामूहिकता हर बार मिल पाए संभव नहीं होता सो कविता जैसे रह जाती है वैसा कथक नहीं रह पाया।
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गुरू-शिष्य परंपरा की बात हमेशा इसके साथ होती है। जैसा महर्षि विश्वामित्र के काल में था वैसा तो सालों से नहीं रहा होगा कि गुरू के घर जाकर सीख सकें। पर गुरू के सान्निध्य में ज़्यादा से ज़्यादा रहने पर उस कला की आत्मा आत्मसात् होती है। केवल थ्योरी नहीं प्रैक्टिकल भी पढ़ना होता है। बड़े साहित्यकारों की संगत से साहित्य निखरता है वैसे ही गुरू के सान्निध्य से कला तपती है, पकती है। गुरू का आचार-विचार, व्यवहार भी अमल में आने लगता है। आज भी कितने ही आर्टिस्ट हमें दिखते है। देखिए किसी नर्तक को, आप समझ जाएँगे कि वो किस आर्ट फ़ॉर्म का है। वो किस स्कूल या घराने का है। यह उसके24×7 कला में जीने से होता है। इस परंपरा में कहा जाता है जो अच्छा है वो गुरू का और जो बुरा है वो मेरा। कमज़ोरी स्वीकारना और गुरू की अनुकंपा को मानना अहंकार से दूर रखता है।
मेरे सामने कथक चुनने के कोई विकल्प नहीं था। ऐसा ही होता है। आप कोई नृत्य क्यों चुनते हैं इसके कोई तयशुदा कारण तब तक नहीं होता जब तक आप उसमें रच-बस नहीं जाते। तब आप इतने रच जाते हैं कि आपको उससे कोई अलग कर ही नहीं सकता। मैं उन लोगों से खुद को तौल नहीं रही बस आसानी से समझ आ जाए इसलिए उदाहरण दे रही हूँ कि उस्ताद जाकिर हुसैन कहते ही बरबस आप तबला कह देते हैं। यह ताकत वो कला किसी कलाकार में भर देती है जो कलाकार उस कला को देता है। अब यदि वे खुद भी सोचते होंगे कि उन्होंने तबला क्यों चुना तो उन्हें जवाब मिलता होगा कि वे तबले के लिए ही बने हैं। उनके बारे में एक किस्सा है कि उनके वालिद अल्ला रक्खां खाँ साहब जब कहीं दौरे पर गए होते थे तो छोटे ज़ाकिर साहब तबला छोड़ क्रिकेट खेलने पहुँच जाते…लेकिन जब चुनने की बारी आई तो उन्होंने तबला चुना और आज देखिए…
मेरे ज़ेहन में तबले का उदाहरण इसलिए आया क्योंकि वह कथक के बेहद करीब है। हारमोनियम पर नगमा बजता रहता है। लेकिन असली साथी तो तबला ही होता है। हारमोनियम की ज़रूरत वैसी ही होती है जैसी गायन में तानपुरे की। वो न हो तब भी गायन होगा लेकिन गायन में भराव तानपुरे से आता है वैसे ही नगमा न हो तब भी नृत्य तो होगा पर सारे खाली स्पेस को भरने का काम हारमोनियम करता है।
गीतं, वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते। इसमें पहला स्थान गायन का है। लेकिन नृत्य ही ऐसा है जिसमें तीनों समाहित हैं । नृत्य अपने आपमें परिपूर्ण है। उसमें हर वो बात है जो किसी कला में होना चाहिए। अनगढ़ शिल्प है, चित्रकला की अद्भुत संभावना है। एक पूरा खाली कैनवास जैसा फैला मंच है जिस पर कोई भी रंग भरा जा सकता है। उसमें नाट्य के सभी अंग हैं और साहित्य उसमें ‘कवित्त’ से जुड़कर आता है। जैसे ‘धाकिटतक धुमकिटतक घिन्नड़ांग, कत्त धिकिट तान धान। राधा उर लगी लगन, कान्हा सो चली मिलन।’ अब इसमें कथक भी है और साहित्य भी। आप इसमें से दोनों को अलग नहीं कर सकते। किसी भी कवित्त को देख लीजिए उसमें ताल और कविता इसी तरह गूँथी हुई नज़र आएगी। जैसे वे दोनों कभी अलग थे ही नहीं।
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कथक में साहित्य को समाहित करने में नवाब वाजिद अली शाह का नाम सबसे पहले लिया जाता है़ उसके बाद पं. बिंदादीन महाराज हैं जिन्होंने जितनी ठुमरियों की रचना की उतनी किसी ने न की होगी। कविता पर कथक, लंबी कविता पर कथक के अनंत प्रयोग देखे जा सकते हैं। संस्कृत के श्लोकों से लेकर नज़्म और गज़ल तक को कथक में लाया गया है। बैठकर केवल भाव नाचने की लंबी परंपरा कथक में है। वो वाकया मैं भूल नहीं सकती जब नृत्य गुरू पं. सितारा देवी ने उम्र के उस मुकाम पर कथक किया था जब कोई कुछ भी नहीं कर सकता। तब उन्होंने बैठकर कथक किया लेकिन ग्रीन रूम में बाकयदा तैयार हुईं। कथक कोई खेल नहीं, एक तरह की गंभीरता माँगता है। यह उन्होंने दिखा दिया।
कथक सौंदर्य माँगता है। लेकिन जो कथक करता है वो खुदबखुद सुंदर हो जाता है। पं. अच्छन महाराज बहुत ही काले और मोटे थे लेकिन जब वे नृत्य करते तो कोई याद ही नहीं रख पाता कि वे कैसे दिखते हैं। उनका कथक इतना खूबसूरत होता कि हर कोई वाह कह बैठता। पं. लच्छू महाराज यही तो कहते थे कि कथक देखते हुए तालियाँ नहीं बजना चाहिए। तालियाँ तो करामात पर बजती हैं, दिल से आह और मुँह से वाह निकलना चाहिए। तो कथक इस तरह दिल से वाह कहलवाता है जब पं. शंभू महाराज नाचते थे, पं. बिरजू महाराज नाचते हैं या गुरू उदय शंकर नाचते थे।
पं. उदय शंकर ने कथक को बैले से जोड़ा और नृत्य नाटिका की लंबी श्रृंखला सामने रखी। इसी तरह के कई प्रयोग कथक में हुए। उसे लिपिबद्ध करने का महती काम पंडिता रोहिणी भाटे ने किया। अब कथक में फ्यूज़न दिखता है। कथक कहीं न कहीं भारतीयता के बहुत करीब है। हर चीज़ को आत्मसात् करने का बड़ा अनूठा गुण कथक में है। हर बात आत्मसात् करता है फिर भी वो कथक ही रहता है। मुगले आज़म का ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे’ को आप क्या कहेंगे फ़िल्मी नृत्य, नहीं वो कथक ही है।
मंच पर एक ही फोकस लाइट होती है और आप प्रस्तुति दे रहे होते हैं। वो अद्भुत क्षण होता है। तब कलाकार और कला के बीच और कोई नहीं होता। दर्शक उसे प्रस्तुति देते हुए देखते हैं। हर भाव में अपने कृष्ण और राधा को खोजते हैं लेकिन नर्तक किसी को देख नहीं पाता। उसकी नजर ऐसे ठहरती है कि दर्शकों में हर कोई समझता है यह नज़र, यह अदा केवल उसी के लिए है और उसका मुरीद हो जाता है। लेकिन किसी भी कलाकार से पूछिए मंच के परे का अंधेरा उसे खुद से कितना एकाकार कर देता है।
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मंच पर उसके चेहरे की चमक कई गुना बढ़ जाती है जो मेकअप की देन नहीं होती। उसका उस समय दर्शक कोई नहीं होता। वो नाचता है तो रंगमंच के देवता के लिए। विलियम वी पर्की की एक मशहूर कहावत सुनी होगी आपने ‘यू हैव गोटा डांस लाइक देयर इज नो बडी वाचिंग, लव लाइक यू विल नेवर बी हर्ट, सिंग लाइक देयर इज नो बडी लिसनिंग एंड लिव लाइक इट इस हेवन ऑन अर्थ। ’ मंच पर नर्तक ऐसे ही नाचता है मानो उसे कोई नहीं देख रहा। वो अपनी मस्ती में नाचता है। अपने आनंद के लिए और इसी आनंद में वो परमानंद के उच्च क्षणों को पा जाता है।
योग में जिस तुरीय अवस्था का वर्णन आता है वो कला की साधना से पाया जा सकता है। साधक जब तुरीय अवस्था में होता है तो हर चीज़ से परे हो जाता है। पूरी दुनिया के पार हो जाता है। सबमें रहकर सबसे दूर हो जाने का हुनर उसे मंच से ही मिलता है।
मूलत: ब्राजील के उपन्यासकार पाउलो कोएलो की ‘ब्रिदा’ को जब मैंने पढ़ा था तब भी मुझे यह अनुभव आया था। ऐसा ही होता है नृत्य के दौरान। वो नाचते हुए एकदम अलग हो जाती है। ये ट्रांसफ़ॉर्मेशन उसे डांस से मिलता है। वो दुनिया में व्याप्त लेकिन अदृश्य संगीत से तालमेल बैठाते हुए नृत्य करती है और उसकी सारी ऊर्जा उसके मस्तिष्क के केंद्र में स्थिर हो जाती है।
गहरे अवसाद के क्षणों से नृत्य के बोल उबारते हैं। विज्ञान जिसे डीटॉक्सिफिकेशन कहता है। ऐसे हारमोन्स का स्राव होता है जो आपको आनंद की अनुभूति कराते हैं। विज्ञान की भाषा वैज्ञानिक जाने लेकिन मुझे तो इतना पता है जब मैं खुश होती हूँ तो मेरा मन नाच उठता है और जब मैं दु:खी होती हूँ और शब्दों को कलम से अभिव्यक्त तक नहीं कर पाती नृत्य मुझे अभिव्यक्त होने का अवसर देता है। यह निराकार से प्रेम जैसी बात है। यह गूंगे के गुड़ खाने सी बात है। नृत्य को लिखकर बयाँ किया ही नहीं जा सकता, इसे तो नाचकर ही देखना होता है। यह उत्सव है। जीवन के सबसे बड़े रंगमंच पर अपने आयाम के हर विस्तार में परिणत होता नृत्य कर जाना होता है। और तब आप भी कह उठते हैं जो महाकवि सूरदास ने कहा कि, ‘नाच्यो बहुत गोपाल, अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल’।
3 thoughts on “अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल”
नृत्य की शैली का चित्रमय लेखन। बहुत विलोभनीय लगा।
वाह!अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल… अप्रतिम लेख।
वाह स्वरांगी रोज़मर्रा की आपाधापी में कथ्थक नृत्य विधा शायद पिछे छूट गयी लेकिन वह नृत्य, संगीत, लय संस्कार आपके शरीर मे इतना रचा बसा है की आपके हसनें में , बोलने मे , कविता में लेखन में ,नादमय नृत्य और कला की शुध्दताpurity और प्रेम नज़र आता है पढ़कर आनंद आया
विजया टेकसिंगानी