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आचार्य तनरंग – संगीत के आसमान का दैदीप्यमान सितारा

भारतीय शास्त्रीय संगीत का ज़िक्र चलते ही कई घराने उभरकर सामने आते हैं। साथ ही साथ चर्चा होती है गुरु-शिष्य परंपरा की, घरानों की विशेषताओं की और ख़ास तौर पर बंदिशों की। ‘बंदिश’ गायकी की आत्मा है। बंदिश एक ऐसी चौखट है जिसमें शब्द व स्वरों के माध्यम से राग की ख़ूबियाँ, राग का चलन स्पष्ट होता है।

आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे “तनरंग”

बंदिशों के निर्माण का सिलसिला पुराना है। आज भी पारम्परिक बंदिशें सभाओं में गायी जाती हैं, सराही जाती हैं। बंदिशें गायकी में अहम् भूमिका निभाती हैं। बंदिश भरना ही गायकी है। सभा-सम्मेलनों में वे ही बंदिशें छा जाती हैं जिनकी स्वर रचना के साथ-साथ शब्दावली भी स्तरीय, आकर्षक व रागानुरूप हो और वह लय के साथ झूमते हुए सम अदा करें।

बंदिशों की बात छिड़ते ही मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ एक नाम आता है – आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे। यह एक ऐसे बहुमुखी, बहुरंगी, बहुआयामी व्यक्तिमत्व का नाम है जो एक प्रतिभाशाली गायक, उत्कृष्ट रचनाकार, उत्तम वाग्येयकार होने के साथ-साथ एक आदर्श गुरु भी थे। सामान्यतः एक व्यक्ति में कला के इतने सारे आयाम एक साथ देखने नहीं मिलते। इन्होंने ‘तनरंग’ उपनाम से सैंकड़ों नायाब बंदिशों की रचना से संगीत जगत को समृद्ध किया है।

आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे जी का जन्म ६ दिसंबर १९२० को सागर म. प्र. में हुआ। यह वर्ष हम उनके जन्म-शताब्दी वर्ष के रूप में मनाने जा रहे हैं। छः माह की अल्पायु में ही इनकी माता श्रीमती सरस्वती बाई का देहांत हो गया। इस नन्हे बालक को ‘बाळ’ नाम से पुकारा जाता था। माता के देहांत के पश्चात् बाळ के मामा श्री सीतापंत किरकिरे उसे अपने साथ ग्वालियर ले आये। सात वर्ष की उम्र से ही बाळ ने गान शिरोमणि पं. कृष्णराव शंकर पंडित जी से ग्वालियर घराने की तालीम लेना प्रारम्भ किया। कभी कड़े अनुशासन में, तो कभी प्रेम से बाळ पर संगीत संस्कार होते रहे। इन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु तक बारह वर्ष पंडित जी के सानिध्य में संगीत शिक्षा ग्रहण की। १९३९ में सागर लौटने पर इन्होंने “भारतीय संगीत कला मंदिर” की स्थापना की और विद्यार्थियों को संगीत प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। १९४५ में पंडित जी की अनुमति से बंदिशों की रचना करना प्रारम्भ किया। पंडित जी से प्रोत्साहन व प्रशंसा मिलती रही, फलस्वरूप एक से बढ़कर एक बंदिशें निःसृत होती रहीं। आगे चलकर किसी उपनाम से बंदिशों की रचना हो ऐसी आवश्यकता महसूस हुई तब इन्होंने ‘तनरंग’ उपनाम से बंदिशें रचना प्रारम्भ किया।

बंदिशों की रचना का सिलसिला अनवरत चलता रहा। १५० रागों में लगभग १८०० से ज़्यादा बंदिशों के निर्माण का अभूतपूर्व श्रेय इन्हें जाता है। इनकी रची हुई बंदिशों में बड़े ख़्याल, छोटे ख़्याल, सादरे, ध्रुपद, तराने, चतुरंग, ठुमरियाँ एवं स्वर-सागर शामिल हैं। बेजोड़, बेमिसाल और सभाजयी बंदिशें विविध रागों पर आचार्य तनरंग जी का प्रभुत्व दर्शाती हैं। इनकी स्वर व लय से खेलती बंदिशों में सम की अदायगी आकर्षण का केंद्र होती है। बंदिशों का साहित्यिक स्तर अपनी ही ऊंचाई छूता है। आचार्य तनरंग जी की कई बंदिशें तान प्रधान हैं। ऐसी पेंचीदा बंदिशों को गले से उतारना ही किसी कौशल से कम नहीं। उदाहरणार्थ, राग बैरागी तोड़ी में रची त्रिताल में निबद्ध इस बंदिश को देखें, जो तान-प्रधान होने के साथ-साथ स्वर, लय, शब्द, रस, आदि सांगीतिक तत्वों से परिपूर्ण है।

आचार्य तनरंग  जी अपने शिष्य श्री कृष्णा टोले एवं  श्री प्रकाश रिंगे के साथ। तबला- श्री प्रदीप रानडे

इसी प्रकार अनेक महफ़िलमार बंदिशों की रचना होती रही। १९६८ में आचार्य तनरंग जी सपरिवार सागर से इंदौर आ बसे। आगे आजीवन इंदौर ही इनका कार्यक्षेत्र रहा। अष्टांग प्रधान गायकी जो कि ग्वालियर घराने की ख़ासियत है, होने के कारण मींड, कण, सूत, गमक, बहलावे, तानें, आदि अंगों से सजी इनकी गायकी से श्रोतृवृंद मंत्रमुग्ध होता था। आचार्य तनरंग जी उत्कृष्ट वाग्येयकार तो थे ही साथ-साथ मंझे हुए गायक भी थे। स्वरचित बंदिशों के साथ समृद्ध व परिपक्व गायन रसिक वर्ग के लिए आनंदानुभूति से कम न था। लय पर इनकी ज़बरदस्त पकड़ थी। तिहाइयों के बाद “सम की आमद” पर जम कर दाद मिलती थी।

आचार्य तनरंग  जी अपने प्रिय शिष्य श्री कृष्णा टोले जी (मेरे पिता व गुरुवर्य) के साथ

अनेक शिष्यों को आचार्य तनरंग जी ने तालीम दी। प्रेम व वात्सल्यपूर्ण स्वाभाव के कारण वे शिष्य वर्ग में बड़े प्रिय थे। इनका शिष्य-वर्ग विस्तृत है। मेरे पिता व गुरु स्व. कृष्णा टोले जी, आचार्य तनरंग जी के सुपुत्र-
श्री प्रकाश रिंगे जी व श्री विश्वजीत रिंगे जी का नाम शिष्यों की फ़ेहरिस्त में प्रमुखता से आता है। मुझे भी कई बार आचार्य तनरंग जी से गायकी के गुर सीखने के सुअवसर मिले हैं। १० दिसंबर २००५ को मोक्षदा एकादशी के दिन इनको मोक्ष प्राप्त हुआ।

लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स के १९९९ के संस्करण में आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे ‘तनरंग’ जी का नाम हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के सर्वाधिक बंदिशों के रचनाकार के रूप में शामिल हुआ है। इनकी रची हुई सभी बंदिशें पं.कृष्णराव शंकर पंडित जी की बनायी हुई स्वरलिपि में निबद्ध हैं। यह स्वरलिपि अत्यंत सरल व वैज्ञानिक है। आचार्य तनरंग जी की बंदिशों का प्रकाशन दो पुस्तकों के रूप में हुआ है – आचार्य तनरंग की बंदिशें भाग-एक और आचार्य तनरंग की बंदिशें भाग-दो। इसी श्रृंखला में अगला भाग प्रकाशनाधीन है। tanarang.com पर आचार्य तनरंग की बंदिशों का संकलन उपलब्ध है।

आचार्य तनरंग जी की बंदिशों का संग्रह इतना विशाल है कि इसे देखकर मुझे इन बंदिशों पर शोध करने की प्रेरणा मिली। “आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे ‘तनरंग’ जी की बंदिशों में स्वर, लय, शब्द व रस सौंदर्य की अवधारणा” विषयान्तर्गत मैंने अपना शोध-प्रबंध रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर म. प्र. में दाखिल किया। मेरे शोध निर्देशक डॉ. अखिलेश सप्रे जी के सुयोग्य दिशानिर्देशन में यह शोध कार्य संपन्न हुआ तथा मुझे पीएच.डी. की उपाधि हासिल हुई है। इस अवधि में आचार्य तनरंग जी के आशीर्वाद निरंतर मुझपर बने रहे, ऐसा मेरा विश्वास है।

आचार्य तनरंग जी के संगीत सागर में अवगाहन करने का अवसर मुझे मिला यह मेरा सद्भाग्य है। शास्त्रीय संगीत से मैंने आजीवन प्रेम किया है, रसास्वादन किया है, लेकिन आचार्य तनरंग जी के संगीत व बंदिशों से मुझे जो आनंद प्राप्त हुआ है वो दैवीय है, अलौकिक है। मैंने शोध प्रबंध के माध्यम से इस आनंद को रसिकवृंद तक पहुँचाने का अल्प सा प्रयास किया है। इनकी बंदिशें जहाँ शिष्य-वर्ग के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होंगी वहीं इस पीढ़ी के युवा गायक इन बंदिशों को गाकर महफ़िलें सजा सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। ऐसी असामान्य प्रतिभा के धनी व्यक्तिमत्व की मैं सदैव ऋणी रहूँगी। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी अपनी बंदिशों के रूप में अमर हैं। उनकी पावन स्मृति को नमन करते हुए मैं अपने शब्दों को विराम देती हूँ।


लेखिका डॉ.वीणा धामणगांवकर ने पिता व गुरु स्व. कृष्णा टोले जी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त की है तथा आचार्य विश्वनाथ गणपत रिंगे “तनरंग” की बंदिशों में स्वर, लय, शब्द व रस सौंदर्य की अवधारणा पर शोध भी किया है।

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