‘अँसुवन जल सींची-सींची प्रेम बेली बोई…’ मीरा का पद है, प्रेम की बेल को आँसुओं के जल से सींचा जाता है लेकिन जहाँ गुरू-शिष्य का नाता आता है वहाँ आँसुओं को बहाने से भी डर लगता है कि कहीं गुरू आहत न हो जाएँ, कहीं उन्हें कष्ट न पहुँचे।
जीवन के कष्टों को पीछे छोड़ अपनी शिष्याओं के बीच सविता ताई के नाम से जानी जाती, सविता गोडबोले, आज हमेशा-हमेशा के लिए चली गईं। टीचर्स डे के ठीक एक दिन पहले गुरू चले गए… टीचर और गुरू में यही अंतर है कि टीचर केवल उतना ही पढ़ाता है जितने के लिए वह वचनबद्ध होता है, गुरू उसके अलावा भी बहुत कुछ सिखाते-समझाते, दिखलाते-बताते हैं। गुरू तत्व अखंड प्रवाहित होता है। वह एक परंपरा की तरह रचा बसा होता है और परंपरा किसी नदी की तरह सतत प्रवाहित होती है। नदी सूख जाए तो वह नदी नहीं रहती,ऐसा ही कुछ परंपरा के साथ होता है।
लुप्त प्राय हो रही गुरू-शिष्य परंपरा की एक हस्ताक्षर थीं सविता गोडबोले। कथक के लखनऊ घराने के आधार स्तंभों में से एक पंडित लच्छू महाराज जी की प्रत्यक्ष शिष्या मंगला नातू जो विवाहोपरांत सविता गोडबोले हुईं। सविता गोडबोले होने के बाद भी उन्होंने उस मंगला को अपने भीतर रखा, जिसने लच्छू महाराज जी से सीधे कथक सीखा था। जो लोग मानते हैं कि लखनऊ के नर्तन में भाव पक्ष अधिक है वे सविता ताई के नर्तन में उस भाव पक्ष को देख सकते हैं और जिन लोगों को लगता है कि लखनऊ घराने में केवल भाव पक्ष ही है उन्हें भी सविता ताई का उस दौर का नृत्य देखना चाहिए था जब वे तोड़ों-टुकड़ों को किया करती थीं, ताल पक्ष को भी बड़ी कुशलता से दिखाया करती थीं। तबले पर बोल की जैसी फिरत होती है, वैसी ही उनके पैरों से होती थीं, बाद में जब उनके पैरों ने साथ देना छोड़ा तो वे शिष्याओं को हथेली से बताया करती थीं कि किस बोल को पैर से कैसे निकाला जा सकता है।
इंदौर के आड़े बाज़ार के पुराने बाड़े में वे कथक सिखाती तो उनका रौद्र रूप और ममतामयी छवि दोनों देखी जा सकती थीं। बीच बाज़ार, भरी सड़क पर कथक की कक्षाएँ होतीं, नृत्य करती शिष्याओं को गवाक्ष से आसानी से देखा जा सकता लेकिन मजाल है कि कोई सिरफिरा कभी चूँ भी कर दे, इतनी खड़ी बोली में वे बात करती कि किसी की हिम्मत ही न हो उन लड़कियों की ओर आँख उठा देखने की। लखनऊ का अदब और नज़ाकत उनके नृत्य में थी व्यवहार में वे मराठन थीं… मतलब एकदम लड़वैया जैसी। वे खुद बतातीं कि पंडित लच्छू महाराज कहते थे मेरे नृत्य को यह मराठन आगे ले जाएगी। लच्छू महाराज जी की इस बात को उन्होंने सिद्ध भी किया, महाराज जी पर डाक टिकट निकालने के लिए कितनी ही कवायदें उन्होंने की थीं और डाक टिकट जारी भी हुआ। नृत्य करते समय पैर ग़लत पड़ जाए तो उनके पास जो रखा होता वे उसे फेंककर मारती थीं, लेकिन इतना ध्यान भी रखती कि लगे नहीं। यह जैसे उनकी दिखावे की कठोरता थी ताकि नृत्य करने वाला मार के डर से सही करे, सही सीखे। वे पैर की दिशा में फेंकती, सीखने वाली उतनी ही चपलता से पीछे हटती, निशाना चूक जाता लेकिन निशाना चूकता नहीं था, सविता ताई जानबूझकर निशाना चुकवाती थीं ताकि शिष्या का हानि भी न हो और वह सही सीख भी जाए। उनकी डाँट में लाड़ अधिक होता था, डाँट कम।
एक बार उन्होंने बताया था कि लखनऊ कथक केंद्र में लच्छू महाराज जी कथक का अभ्यास देकर बाहर चहलकदमी करने चले जाते और कहते मैं न आऊँ तब तक करते रहो, वे करती रहतीं, महाराज जी लौटकर आते तो जगह से हटने को कहते और अपने पैर उस जगह पर रखते, इतनी देर तक रियाज़ करने की वजह से वहाँ की फर्श गरम हो गया होता था और वे जान जाते कि बिना किसी कोताही के रियाज़ ही हुआ है। सविता ताई का यह बताने का उद्देश्य अपनी बढ़ाई करना नहीं होता था बल्कि उस जज़्बे को भरना होता था कि गुरू की बात मान किस तरह रियाज़ किया जाता है। मुद्राओं की शुद्धता, पढ़ंत करते समय पक्की लयकारी और भावों के साथ अभिनय और अभिनय के साथ शुद्ध नर्तन एक साथ वे कई चीज़ें सिखातीं।
इन दिनों जब हर क्षेत्र में ग्रुपिज़्म है और गुटबाजी है तब ऐसे गुरुओं का जाना और रिक्तता भरता है जो खुले विचारों और मानसिकता के थे। मेरे लिए तिलकनगर से आड़ा बाज़ार का उनका घर बहुत दूर था और स्कूली पढ़ाई की बड़ी कक्षाएँ आ रही थीं तो उन्होंने ही कहा था कि मैं बनिस्बत पास के गीता भवन क्षेत्र में स्थित पंडित पुरु दाधीच जी और विभा दाधीच से सीखने जाऊँ। एक गुरू अपने किसी शिष्य को खुद होकर दूसरे गुरू और दूसरे घराने का नृत्य सीखने की अनुमति नहीं देता, यहाँ वे खुद कह रही थीं। जितने उदार मन से उन्होंने दाधीच गुरूजी के यहाँ जाने के लिए कहा, उतने ही उदार मन से दाधीच दंपत्ति ने भी अपनाया। दोनों गुरुओं ने परस्पर आदर-सम्मान को बरकरार रखा और कभी दूसरे घराने या दूसरे गुरू के दोषों को न तो इंगित किया, न उस पर चर्चा की। इस आसानी से लखनऊ घराने का ‘तकिट तकिट धिन’ और जयपुर घराने का ‘धातिट धातिट धिट’ सीखने का लाभ किसी को मिल सकता था तो शायद हमारी पीढ़ी को ही…क्या आज भी यह संभव है? पता नहीं!
क्या ही संयोग है कि 1 सितंबर को गुरू लच्छू महाराज जी की जयंती होती है और उसके कुछ दिनों बाद ही उनकी प्रिया शिष्या उनसे मिलने चली गई। बहुत कुछ पता नहीं उसमें से यह भी एक कि अब सविता ताई किस प्रदेश जा रही हैं, वे उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र के सांगली के डॉ. उदय गोडबोले के यहाँ आई थीं, वहाँ से मध्यप्रदेश इंदौर को अपनी कर्मस्थली बनाया था…अब परलोक को वे अपना घर बनाने जा रही हैं…उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के आयोजन में लखनऊ की उनकी प्रस्तुति थी ‘हमरी अटरिया पर आजा रे सावरिया, देखा-देखी बलम होई जाए’…और उस प्रस्तुति का समापन उन्होंने ईश्वर को अपने पास बुला, ईश्वर से अपने प्रेम को दिखाया था…उस ईश्वर की अटरिया पर अब तक वे पहुँच चुकी होंगी और परम बलम से मिल गई होंगी जैसे मीरा, कृष्ण से एकाकार हो गई थी।